Thursday, May 13, 2010

प्रकृति-बोध का संदर्भ, अज्ञेय को अपने समकालीन कवियों के बीच एक अलग पहचान देता है

कविता में पर्यावरण संबंधी चिंताओं व सरोकारों की अभिव्यक्ति की 'खोजबीन' के दौरान अज्ञेय की 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं पर गौर किया तो एक दिलचस्प तथ्य यह पाया कि उनमें न सिर्फ पर्वतीय-प्रदेश की प्रकृति के कुछ अनुपम व मनोरम दृश्य उकेरे गये हैं बल्कि उन सबको खो देने का डर और पीड़ा भी अभिव्यक्त हुई है | यह तथ्य मुझे दिलचस्प इसलिए लगा क्योंकि यह तथ्य प्रकृति-बोध के संदर्भ में अज्ञेय को अपने समकालीन कवियों से अलग पहचान देता है | अज्ञेय की कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्रों का एक संग्रह भर नहीं दिखता है, बल्कि सौंदर्य और लय के नैसर्गिक संसार के नष्ट होने की पीड़ा भी उनमें व्यक्त होती नज़र आती है | कहीं-कहीं उसे बचा लेने की पीड़ा भरी इच्छा व कोशिश भी दिखती है | और ठीक इसी मुकाम पर अज्ञेय का प्रकृति-काव्य छायावाद से बिल्कुल अलग राह पकड़ता नज़र आता है | उल्लेखनीय है कि छायावादी कवियों को प्रकृति की छांह में एक तरह की आश्वस्ति मिलती थी; सामाजिक बंधनों की जकड़ से घबराये हुए मन को 'द्रुमों की मृदु छाया में' शांति मिलती थी | लेकिन अज्ञेय के लिये प्रकृति छायावादियों की तरह रोमांटिक शरणस्थली ही बन कर सामने नहीं आती, पीड़ित मानवता की तरह पीड़ित प्रकृति की करुण पुकार भी उन्हें सुनाई पड़ती है | वह यदि एक ओर 'बिखरे रेवड़ को / दुलार से टेरती-सी / गड़रिये की बाँसुरी की तान' सुनते हैं, तो दूसरी ओर 'भट्टी से उठे धुएँ' के फंदे में 'सिहरते-लहरते शिशु धान' भी देखते      हैं |
अज्ञेय ने प्रकृति को लेकर बहुत कविताएँ लिखी हैं | इसी आधार पर माना गया है कि छायावाद के अवसान के बाद प्रकृति के प्रति जो नई सौंदर्य-चेतना, एक नया राग-संबंध विकसित होता है - उसकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति अज्ञेय की कविता में हुई है | उल्लेखनीय यह जानना भी हुआ कि उनमें अपने कवि-जीवन के आरंभ से अंत तक प्रकृति के प्रति एक खास तरह का लगाव बना रहा और इस लगाव के खरेपन को उनकी कविताएँ बार-बार प्रमाणिक करती रहीं | यूं तो केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन ने भी प्रकृति को लेकर काफी क़विताएँ लिखी हैं; लेकिन इनकी प्रकृति-संबंधी कविताओं से अज्ञेय की प्रकृति-संबंधी कविताओं का मामला इसलिए अलग है क्योंकि अज्ञेय की प्रकृति का स्वरूप शहरी है | उनकी कविताओं में ग्रामीण क्षेत्र की प्रकृति का चित्रण प्रायः नदारत ही मिलेगा | अज्ञेय की कविता में जो फूल, पौधे, पक्षी आदि आये हैं वे आमतौर पर ऐसे हैं जो शहर-जीवन में मिलते-दिखते हैं | उनकी कविताओं में पर्वतीय-प्रदेश व समुद्र आदि का जो चित्रण है, वह भी अपनी अर्थ-व्यंजना में शहरी रुचि का ही द्योतक है | अज्ञेय के भावबोध का स्वरूप ही शहरी नहीं है, बल्कि उनकी भाषा की प्रकृति भी उसी किस्म की है | तत्सम शब्दों की बहुलता को सुसंस्कृत शहरी-रुचि के संदर्भ में ही देखा/पहचाना जा सकता है | हालाँकि, अज्ञेय की कविताओं में कहीं-कहीं लोक-भाषा के शब्दों का सृजनात्मक प्रयोग भी दिख जाता है, लेकिन वह उनकी कविताओं में कोई पहचान नहीं बना सके हैं | यह कमी, लेकिन अज्ञेय की कविताओं की खूबी बन गई है |
अज्ञेय का प्रकृति-बोध छायावादी बोध से ही अलग नहीं है, वह नई कविता के प्रकृति-बोध में भी अपनी प्रखरता को दर्शाता है | अपने निबंध 'कला का जोखिम' में निर्मल वर्मा ने अज्ञेय के प्रकृति-बोध को रेखांकित करते हुए लिखा है : 'वह पहाड़ों को देख कर मुग्ध होते हैं, तो नीचे जंगलों में पेड़ों के कटने का आर्तनाद भी सुनते हैं, बल्कि कहें, यह कटने का बोध उनके प्रकृति के लगाव में 'एंगुइश', एक गहरी दरार पैदा कर जाता है | उनकी कविताएँ अपने प्रतिद्वंद्वी रूपकों के बीच एक तरह से 'क्रॉस रेफरेंस' बन जाती हैं - सचेत अंतर्मुखी आधुनिकता और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच |' अज्ञेय के प्रकृति-बोध को निर्मल वर्मा ने 'आधुनिक बोध की पीड़ा' का नाम दिया है | गौर करने की बात यह है कि पर्यावरण संबंधी चिंताओं व सरोकारों को अज्ञेय जब अपनी कविताओं में अभिव्यक्त कर रहे थे, उस समय हमारे देश में पर्यावरणवादी आंदोलनों अथवा पर्यावरण-संबंधी चिंताओं के स्वर मुखर नहीं हुए थे | 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं में व्यक्त विचार आज के पर्यावरणवादी आंदोलनों के नेताओं के विचार से चकित करने वाली समानता रखते हैं | इस संदर्भ में यह बात जैसे एक बार फिर से साबित होती है कि एक सजग कवि युग-चेतना के पद-चाप की आहट दूसरों से पहले सुन लेता है |
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के जन्मशती वर्ष में इस बात को पहचानना और रेखांकित करना खास तरह का सुख देता है |    

2 comments:

  1. प्रकृति-बोध के संदर्भ में अज्ञेय को 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं के बहाने स्‍मरण करता आपका लेख उम्‍दा है.

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  2. प्रकृति-बोध के संदर्भ में अज्ञेय को 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं के बहाने स्‍मरण करता आपका लेख उम्‍दा है.

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