Thursday, February 18, 2010

रश्मि सानन की ग़ज़लों में एक गहरी मानवीय पीड़ा के साथ व्यक्त कोमल भावनाओं व नियति का जो संघर्ष है, वह दरअसल सपनों और यथार्थ का संघर्ष है

ग्वालियर में आयोजित संगीत संध्या में गुलाम फरीद को ग़ज़ल गाते सुना तो उनके अंदाज से प्रभावित होने से और खुल कर दाद देने से अपने आप को रोक नहीं सका | ग्वालियर गया किसी और काम से था, लेकिन एक परिचित से संगीत संध्या के आयोजन की सूचना मिली तो उत्सुकता के साथ उसमें जाने का निश्चय किया | कार्यक्रम में पहुँचने में थोड़ी देर हो गई थी | मैं जब पहुंचा तब गुलाम फरीद पहली ग़ज़ल गाना शुरू कर चुके थे | तीस वर्ष की उम्र और भारी शरीर के मालिक गुलाम फरीद जबलपुर से अपना गायन प्रस्तुत करने आये थे | उनके गायन में शास्त्रीयता का पुट था | मधुरता से सुर का लगाव, प्रत्येक सुर की धीरे-धीरे बढ़त, स्वर की स्वाभाविकता और शुद्वता ने उनके गायन को रसमय बना दिया था | उनके द्वारा गाई जा रही ग़ज़ल के शब्दों पर गौर किया तो वह मुझे सुनी / पढ़ी सी लगी | गुलाम फरीद ने कार्यक्रम के पहले दौर में चार ग़ज़लें गाईं और मैंने चारों को सुना / पढ़ा सा पाया तो मैंने याद करने की ज़रूरत महसूस की कि इन्हें मैंने आखिर कहाँ सुना / पढ़ा है | जल्दी ही मुझे याद आ गया कि यह रश्मि सानन की ग़ज़लें हैं जो उनके संग्रह 'तन्हा तन्हा' में प्रकाशित हैं |
रश्मि सानन की ग़ज़लों का यह संग्रह पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है | उनके इस पहले संग्रह ने ग़ज़ल की दुनिया में खासी प्रशंसा प्राप्त की है, यह तो मेरी जानकारी में था; लेकिन यह देख / पा कर मुझे किंचित अचरज भी हुआ कि ग़ज़ल गायकी में अपनी पहचान को स्थापित करने में लगे एक युवा गायक ने एक बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम में रश्मि सानन की ग़ज़लों पर भरोसा किया | कार्यक्रम के बाद के दौर में गुलाम फरीद ने हालाँकि प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों को गाया, लेकिन मैंने देखा / पाया कि बाद में वह रंग नहीं जमा जैसा रश्मि सानन की ग़ज़लों को गाते समय जमा था | ऐसा शायद इसलिए भी हुआ हो, क्योंकि प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों को श्रोता कई-कई बार सुन चुके हैं और गुलाम फरीद के अंदाज के अनूठेपन के बावजूद वह ग़ज़लें श्रोताओं को कोई नया अनुभव नहीं दे पाईं हों; या शायद मुझे ऐसा लगा हो | इस सबके बीच, मेरी जिज्ञासा यह जानने की थी कि गुलाम फरीद को रश्मि सानन की ग़ज़लों में ऐसा क्या लगा कि उन्होंने प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों के बजाये उनसे अपने कार्यक्रम की शुरुआत की ? या यह सिर्फ इसलिए हुआ कि गुलाम फरीद किन्हीं नई ग़ज़लों से अपने कार्यक्रम की शुरुआत करना चाहते थे और रश्मि सानन की ग़ज़लें उन्हें संयोग से मिल गई          थीं ? 
गुलाम फरीद से, कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब मैंने बात की और अपनी जिज्ञासा उनके सामने व्यक्त की तो उन्होंने जो कहा उसे सुनकर मैंने यही नहीं जाना कि गुलाम फरीद सचमुच रश्मि सानन की ग़ज़लों के अच्छे प्रशंसक हैं, बल्कि यह भी जाना की एक अच्छी रचना किस तरह से यात्रा करती है और कैसे अपने प्रशंसकों को तलाश लेती है ? गुलाम फरीद ने बताया कि 'तन्हा तन्हा' संग्रह उन्हें उनके दिल्ली के एक शुभचिंतक ने उपलब्ध करवाया था और उसे पढ़कर वह उस में की कुछेक ग़ज़लों से इतने प्रभावित हुए थे कि पहले ही पाठ में उन्होंने उन ग़ज़लों को अपने कार्यक्रम में प्रस्तुत करने का फैसला कर लिया था | गुलाम फरीद से रश्मि सानन की ग़ज़लों का आकलन सुनकर मुझे लगा कि ग़ज़लों ने उन्हें गहरे से प्रभावित किया है | गुलाम फरीद ने बताया कि "इन ग़ज़लों का इन्हिराफ़ दरअसल उस ज़हन का ज़ाइदा है जो जदीद अहद का जदीद ज़हन है, जो मशिरक़ो मग्रिब की शाइरी में राइज (प्रचलित) इश्क़िया तसव्वुरात से वाकिफ़ है, जो इनसान को किसी मख्सूस खाने में रखकर नहीं देखता, बल्कि उसका मौज़ूअ ऐसा इंसान है, जिसको उसकी मुतज़ाद सिफ़ात और मुतसादिम एह्सासातो-जज्बात से अलग करके देखा ही नहीं ज़ा सकता | इन ग़ज़लों के अश्आर में मुहब्बत के लाखों ख़्वाबों के हाइल होने  का ज़िक्र मिलता है और मुहब्बत की मायूसी भी क़ाबिले-सद शुक्र बन जाती       है |"
गुलाम फरीद ने रश्मि की ग़ज़लों के बारे में बोलना शुरू किया तो फिर वह बताते चले कि "यह अंदाज़ा लगाने में कोई दुश्वारी नहीं होती कि ज़िन्दगी बहैसियते मज्मूइ इन ग़ज़लों में एक नई ज़िन्दगी के रूप में तो ज़ाहिर होती ही है, मुहब्बत जैसा रिवायती मौज़ूअ भी, तब्दीलशुदा ज़िन्दगी की नई अक्दार और नए एहसास लेकर सामने आता है | इस मुहब्बत में तनव्वोअ है, रंग रंगी है, उसके मुतज़ाद अंदाज़ हैं और ख़ुद अपनी कमज़ोरियों क़ा एतीराफ़ है - यहाँ ज़िन्दगी कोई मुनजमिद और गैर-मुतहर्रिक चीज़ नहीं, बल्कि हर लम्हा तब्दील होती है और इंसान को दाख़िली व ख़ारिजी सतहों पर तब्दील करती रहती है - यहाँ शाइर को अपने मुतज़ाद ज़ज्बात और पसो-पेश में मुब्तिला रखने वाली कैफ़ियात के इज्हार में कोई झिझक और हिचकचाहट नहीं |" फरीद का कहना रहा कि "रश्मि की ग़ज़ल में ईक़ान (निश्चय, यकीन) और ख़ुश-अकीदगी का जो फ़ुक्दान (अभाव, कमी) मिलता है, उससे साफ़ पता चलता है कि वह अपने तज्रिबे और इदराक से ज़िन्दगी की तफ्हीम की कोशिश में मसरूफ़ हैं | ज़िन्दगी उनके लिये अकेले झेलने का अमल है, जिसमें अपने वजूद के अलावा इंसान का कोई सहारा नहीं होता; यही वजह है कि उनके यहाँ ज़िन्दगी के मुतज़ाद रूप भी मिलते हैं और वजूद की मुतसादिम क़ुव्वतों का गैर-तर्जीही इज़्हार भी पाया जाता है |" फरीद ने जैसे निष्कर्ष निकला और बताया कि "रश्मि ज़िन्दगी के छोटे बड़े और मुख्तलिफ़ नौइयत के तज़िरबात को एक इकाई की शक्ल दे सकती हैं और उन पर एक साथ गौर करने की अहलियत रखती हैं, चुनाँचे वह अपने मुतफ़र्रिक़ और मुनतशीर तज़िरबात को एक अजीम तज़िरबे की शक्ल दे सकने का हुनर रखती हैं |"
गुलाम फरीद से रश्मि सानन की ग़ज़लों का यह विश्लेषण सुन कर मैंने 'तन्हा तन्हा' को फिर से पढ़ने की ज़रूरत महसूस की | दोबारा पढ़ा तो मैंने गौर किया कि रश्मि की ग़ज़लों में एक और विशिष्टता मिलती है जो 'दिखती' तो आम है लेकिन सचमुच में 'होती' कहीं-कहीं ही है - यह विशिष्टता है उनकी ग़ज़लों की सम्प्रेषणीयता | रश्मि की ग़ज़लें लगभग पारदर्शी होने की हद तक सम्प्रेषणीय हैं - काव्यात्मक स्तर पर सम्प्रेषणीय | यह नहीं कि रश्मि की ग़ज़लों में अनुभव का सरलीकरण है या जटिल अनुभवों से वह कतरा कर गुजर जाना चाहती हैं - लेकिन यदि वहाँ अनुभव अपनी जटिलता के साथ सम्प्रेषणीय हो पाता है तो यह उनके काव्यकौशल का ही परिणाम है - हालाँकि मुझे उनकी ग़ज़लें स्पोंटेनियस ही लगी हैं | उनकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई सम्प्रेषणीयता को मैं इसलिए भी एक अनूठी घटना की तरह देखता हूँ क्योंकि उनकी ग़ज़लें अपने शब्दों की प्रामाणिकता को बनाये रख कर भी सम्प्रेषणीय हो सकी हैं | रश्मि प्रगाढ़ ऐंद्रिक संवेदना की कवियित्री हैं और यह ऐंद्रिक संवेदन उनकी ग़ज़लों में खासी सघनता और परिमाण में व्यंजित होता है | उनकी ग़ज़लों में एक गहरी मानवीय पीड़ा और त्रासद नियति के दर्शन होते हैं | अपने सपनों और यथार्थ का संघर्ष उनकी ग़ज़लों में व्यक्त कोमल भावनाओं व नियति का संघर्ष है | कोमलता और निर्मम नियति का द्वैध रश्मि की ग़ज़लों की वास्तविक पहचान भी है तथा ताकत भी है | रश्मि के काव्य के प्रगीतात्मक रूप की परिपक्वता की प्रखरता व गहराई इसलिए भी प्रभावित करती है, क्योंकि वह रूप जीवन की बुनियादी और निजी अनुभूतियों में से उपजा लगता है |
गुलाम फरीद ने मुझे रश्मि सानन की ग़ज़लों को नये सिरे से देखने के लिये प्रेरित किया और एक नया नजरिया दिया, इसके लिये मैं गुलाम फरीद का वास्तव में बहुत आभारी  हूँ |