Monday, July 12, 2010

द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने अपार धीरज और गहन अन्तरात्मिक सम्पृक्ति से जयशंकर प्रसाद की रचनाओं का जो अध्ययन-विवेचन किया, उसमें रचना का आनंद भी मिलता है और आलोचना/समीक्षा का वैचारिक पक्ष भी

द्वारिका प्रसाद सक्सेना स्मृति न्यास की इधर सामने आई सक्रियता के सौजन्य से स्वर्गीय डॉक्टर द्वारिका प्रसाद सक्सेना (18 फरवरी 1922 - 22 जुलाई 2007) की जो दबी-छिपी रचनाएँ सामने आई हैं, उनमें यशस्वी किंतु उपेक्षित कर दिये गये कवि जयशंकर प्रसाद को एक नये नज़रिए से देखने का मौका मिलता है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने प्रसाद की रचनाओं के अपने अध्ययन-विवेचन में एक बड़ा काम इस आलोचना-रूढ़ी को तोड़ने का किया है कि प्रसाद आदर्शवादी हैं | उल्लेखनीय है कि आलोचकों व समीक्षकों के लिये जयशंकर प्रसाद एक खासी चुनौती रहे हैं और इस बात पर खासी बहस रही है कि उन्हें एक आदर्शवादी माना जाए या पक्का यथार्थवादी ? प्रसाद को लेकर द्वारिका प्रसाद सक्सेना का जो भी अध्ययन-विवेचन अभी तक सामने आया है, उससे यही आभास होता है कि द्वारिका प्रसाद सक्सेना आलोचकों व समीक्षकों की उस जमात में हैं जो प्रसाद को पक्के यथार्थवादी के रूप में देखता/पहचानता है | इस जमात के लोगों ने माना/बताया है कि प्रसाद निरंतर दृष्टा तथा प्रखर मनोविश्लेषक थे | उनका दर्शन उन्हें वह चीज़ देता है जिसे अंग्रेज़ी में 'विज़्डम' कहते हैं और जो शायद गीतोक्त 'समत्वबुद्वि' या 'स्थितप्रज्ञता' के समीप पड़ती है | यहाँ यह रेखांकित करना प्रासंगिक होगा - और साथ ही द्वारिका प्रसाद सक्सेना की वैचारिक स्पष्टता व प्रखरता को समझने में मददगार भी होगा - कि डॉक्टर रामविलास शर्मा ने 1959 में 'समालोचक' का जो 'यथार्थवाद विशेषांक' सम्पादित किया था उसमें द्वारिका प्रसाद सक्सेना का 'प्रसाद के आदर्शवादी चिंतन में यथार्थवादी दृष्टिकोण' शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ था |
द्वारिका प्रसाद सक्सेना प्रसाद साहित्य के गभीर अध्येता थे और उन्होंने प्रसाद साहित्य का विस्तृत अध्ययन-विवेचन किया है | उनका जो काम अभी तक प्रकाशित हो सका है, उसमें 'प्रसाद दर्शन', 'आँसू-भाष्य', 'कामायनी भाष्य', 'प्रसाद का मुक्तक-काव्य', 'कामायनी में काव्य संस्कृति और दर्शन', 'प्रसाद के नाटकों में इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और कला' आदि प्रमुख हैं | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने प्रसाद का अध्ययन-विवेचन उस समय किया जबकि दूसरे लोग प्रसाद से 'बचने' की कोशिश करते थे | प्रसाद का साहित्य आलोचकों व समीक्षकों के लिए दरअसल इसलिए चुनौतीपूर्ण रहा क्योंकि उनकी कविताएँ गहरे पैठने की माँग करती हैं | प्रसाद पहले पाठ में ही आकर्षित करने वाले कवि नहीं हैं | व्यस्क जिज्ञासाओं से उन्मथित वह ऐसे कवि हैं जो अपनी भावनाओं को जीवन-जगत के प्रति एक दृष्टि अर्जित करने के अनिवार्य संघर्ष में नियोजित करने की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं | प्रसाद की रचनाओं में भाव की दुरूहता है, न कि भाषा की | ऐसे में, जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में 'उतरना' कोई हँसी-खेल नहीं रहा; और - शायद - इसीलिए अधिकतर समीक्षकों व आलोचकों ने प्रसाद को बाईपास करने में ही अपनी भलाई समझी | यह जानना, द्वारिका प्रसाद सक्सेना के प्रति सम्मान को और बढ़ाता है कि दूसरे लोग जब प्रसाद से 'बच' रहे थे, तब उन्होंने प्रसाद की रचनाओं से जूझने का काम किया | अपार धीरज और गहन अन्तरात्मिक सम्पृक्ति से उन्होंने प्रसाद की रचनाओं का अध्ययन-विवेचन किया | द्वारिका प्रसाद सक्सेना की आत्मकथा में दिये गये तथ्यों से जोड़ कर इस बात को यदि देखें तो हम पाते हैं कि जिस समय वह जीवन-संघर्षों का सामना कर रहे थे, लगभग उसी समय उन्होंने प्रसाद की रचनाओं से भी 'जूझना' शुरू कर दिया था | यह तथ्य द्वारिका प्रसाद सक्सेना की वैचारिक दृढ़ता और प्रतिबद्वता का ही सुबूत है |
और इस बात का सुबूत भी कि किसी रचना के मूल्यांकन के लिए आवश्यक अवयवों की द्वारिका प्रसाद सक्सेना को न सिर्फ पहचान थी, बल्कि वह उनसे परिपूर्ण भी थे | रचना के मूल्यांकन के लिए मूल्यचेतना जरूरी है और मूल्यचेतना के लिए सामाजिक चेतना | इस प्रकार आलोचनात्मक विवेक के मूल में आलोचक का सामाजिक विवेक होता है जो बहुत दूर तक वर्तमान के बोध से जुड़ा होता है | इसीलिए आलोचना व्यापक अर्थ में विचारधारात्मक क्रियाशीलता मानी जाती है | यह ठीक है कि यदि आलोचक के पास किसी कृति को समझने और उसकी व्याख्या करने की क्षमता नहीं है तो विचारधारा के मंत्र से कृति का द्वार नहीं खुल सकता; लेकिन यह भी सच है कि यदि आलोचक के कलात्मक विवेक के साथ उसका सामाजिक विवेक भी सक्रिय न हो तो वह कृति की सामाजिक सार्थकता की भी पहचान नहीं कर सकता | सार्थक रचना की तरह सार्थक आलोचना भी अपने समय और समाज की हलचलों तथा वैचारिक व संवेदनात्मक परिवर्तनों के बारे में सजग होती है तभी वह रचनाओं से स्वतंत्र और कभी-कभी उनके समानांतर अपनी सामाजिक दृष्टि निर्मित करती है जिससे वह विचारशीलता विकसित होती है जो अपने युग के विवेक का प्रतिनिधित्व करती है | ऐसी आलोचना केवल साहित्यिक ही नहीं होती, वह सामाजिक आलोचना भी होती है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना की आलोचनापरक पुस्तकों के साथ उनकी 'मेरी आत्मकथा' पढ़ने पर हम इस तथ्य को और भली प्रकार समझ सकते हैं |
एक अच्छी साहित्यिक रचना की तरह सार्थक आलोचना भी माँग करती है कि लेखक उन सवालों से पूरी सजगता, संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ टकराए जो मौजूदा परिस्थितियों में हमारी मानवीय गरिमा को परिभाषित-प्रतिष्ठित करने में अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हो गये हैं | मुक्तिबोध जिन्हें ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं उनमें से रचना में पहले की प्रमुखता होती है और आलोचना में दूसरे की | रचना जहाँ हमारी मानवीय गरिमा से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों को एक सघन व प्रखर अनुभव के रूप में व्यक्त करती है वहीं आलोचना में ऐसे अनुभवों का सैद्वांतिक विश्लेषण पेश किया जाता है | रचना का ज्ञानात्मक आधार, वहाँ मौजूद हमारी स्थिति और मानसिकता की पहचान, मुख्यतः प्रज्ञा (intuition) से प्राप्त स्वतःस्फूर्त संज्ञान के रूप में हमारे सामने होता है जबकि आलोचना में इस प्रकार के संज्ञान को भी सैद्वांतिक विश्लेषण में ढाल दिया जाता है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने इसे जिस कौशल से साधा है, वह आकर्षित भी करता है और प्रभावित भी | शायद यही कारण हो कि एक पाठक के रूप में मुझे द्वारिका प्रसाद सक्सेना के लिखे हुए में रचना का आनंद भी मिला और आलोचना/समीक्षा का वैचारिक पक्ष भी | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने जितने विविधतापूर्ण विषयों पर काम किया है, उसकी आधी-अधूरी सूची पर एक उड़ती-सी नज़र भी रेखांकित करती है कि उनके सोच-विचार का दायरा खासा व्यापक और बहुआयामी था | उनके आलोचना कर्म में विषयों की यह व्यापकता और बहुआयामिता इस बात का सुबूत भी है और कारण भी कि वह अपने समय के अनिवार्य रूप से प्रासंगिक बने हुए सवालों से पूरी सजगता, संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ जूझ रहे थे | ऐसे में, द्वारिका प्रसाद सक्सेना स्मृति न्यास ने उनके लिखे हुए को सामने लाने का जो प्रयास शुरू किया है, वह - देर से शुरू होने के बावजूद - महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही प्रसांगिक भी है |