Wednesday, November 18, 2009

आशमा कौल की कविताओं में प्रस्तुत हुए आख्यानों में अनुभव-वस्तु या जीवन-यथार्थ के सूक्ष्म रूपों की विडम्बनामूलक पहचान के प्रति उनकी सजगता तथा संवेदना को साफ देखा / पहचाना जा सकता है

'प्रसंग' द्वारा 'समकालीन हिंदी कविता : उपलब्धियां और चुनौतियाँ' विषय पर दिल्ली में आयोजित सेमिनार में भाग लेने भोपाल से आये वरिष्ठ समीक्षक उमाशंकर चौधरी तथा वाराणसी से पधारे सृजनात्मक साहित्य के अध्येता देवीप्रसाद अवस्थी ने आपस की अनौपचारिक चर्चा में आशमा कौल की कविताओं पर गंभीर और सार्थक बात की, जिसका एक सिरा कश्मीरी कविता की पहचान को छूने का प्रयास कर रहा था, तो दूसरा सिरा आशमा कौल की कविता के काव्य-संस्कार और उसकी संवेदना को रेखांकित कर रहा था | आशमा कौल की कविताओं को मैंने भी पढ़ा है तथा उनमें व्यक्त हुए सामयिक बोध से प्रभावित होकर उन्हें बार-बार पढ़ना चाहा है | किंतु देवीप्रसाद अवस्थी और उमाशंकर चौधरी के बीच हुई बातचीत ने आशमा कौल की कविताओं को देखने का एक नया नजरिया दिया है | यह एक संयोग ही रहा कि देवीप्रसाद अवस्थी और उमाशंकर चौधरी के बीच हुई बातचीत टेप हो गई थी | वह टेप मुझे मिल भी गया | दोनों के बीच आशमा कौल की कविता को लेकर क्या बात हुई, यह आप भी देखें / पढ़ें :
देवीप्रसाद अवस्थी : उमाशंकर जी, आशमा कौल की कविताएँ आपने पढ़ी है क्या ?
उमाशंकर चौधरी : हाँ, उनके दो कविता संग्रह 'अनुभूति के स्वर' तथा 'अभिव्यक्ति के पंख' हैं, जिन्हें मैंने पढ़ा है | लेकिन यह पूछने की ज़रूरत आपको क्यों पड़ी ?
देवीप्रसाद अवस्थी : पिछले दिनों ही मैंने एक प्रकाशक के सूचीपत्र में उनके यहाँ से प्रकाशित हो रहे एक नए कविता संग्रह का नाम देखा, जिसने मुझे एकदम से आकर्षित किया | 'बनाए हैं रास्ते' उसका नाम है | मेरा अनुभव है कि कविता संग्रह का नाम प्रायः संग्रह की किसी कविता का शीर्षक होता है या कविता की किसी पंक्ति से लिया गया होता है | इस शीर्षक ने ही मुझे उस संग्रह की कविताओं को पढ़ने के लिये उत्सुक व प्रेरित किया | लेकिन उक्त संग्रह तो अभी प्रकाशित होना है, इसलिए उसका इंतजार करना     होगा | मैंने सोचा कि तब तक लेखक की पहले यदि कोई कविताएँ प्रकाशित हुई हों तो उनको देखा/पढ़ा जाये | मैंने पता किया कि 'बनाये हैं रास्ते' की रचनाकार आशमा कौल के दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं | मैं लेकिन उनका संग्रह 'अभिव्यक्ति के पंख' ही जुटा सका | इस संग्रह की कविताओं को पढ़कर मैं इतना अभिभूत हुआ कि कई लोगों से उन कविताओं का जिक्र कर चुका हूँ | बहुत समय बाद आज आप मिले तो एकदम से ख्याल आया कि आपसे भी पूछूं कि क्या आपने आशमा कौल की कविताएँ पढ़ी हैं | यदि आप इंकार करते तो मैं आपको उनकी कविताएँ पढ़ने का सुझाव देता | मैं आपको कविता का एक गंभीर पाठक मानता हूँ, इसलिए मैंने यह जरूरी समझा कि आपको बताऊँ कि आपको आशमा कौल की कविताएँ अवश्य ही पढ़नी चाहिए |
उमाशंकर चौधरी : आशमा कौल की कविताओं ने जिस तरह से आपको प्रभावित किया है, उसी तरह से मैं भी उनकी कविताओं का कायल हुआ हूँ | तिक्त अनुभवों के बीच से उठी आशमा की कविताएँ जीवन के अनमोल तत्त्व को बचाए रखने की विकलता की कविताएँ हैं | उनकी कविताएँ एक पाठक के रूप में हमें कश्मीरी कविता से जोड़ने का काम भी करती हैं |
देवीप्रसाद अवस्थी : आशमा की कविताओं के संदर्भ में आपने यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है | कश्मीरी कविता के आधुनिक युग की शुरूआत का परिदृश्य सृजन के नए उल्लास से, नई आशा से स्पंदित था | बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में कवि गुलाम अहमद महजूर कश्मीरी कविता को मध्ययुगीन चेतना से मुक्त कर के एक नई दिशा देने के प्रयत्नों में रत थे | महजूर नए और पुराने के बीच एक सेतु के रूप में आगे आये | वे कश्मीरी अस्मिता के कवि थे और उसकी आकांक्षाओं के साथ ऐसी गहराई से जुड़े थे जिसकी मुक्ति की आवाज उन्होंने अपने गीतों और अपनी गजलों में उठाई | गुलाम अहमद महजूर के अलावा अब्दुल अहद आजाद, मास्टर जिंदा कौल, मिर्जा गुलाम हसन बेग आरिफ, दीनानाथ कौल नादिम, रहमान राही, अमीन कामिल, चमनलाल चमन आदि तमाम प्रख्यात कवियों ने कश्मीरी कविता को जो पहचान और समृद्वता दी, आशमा कौल की कविताएँ उसी पहचान और समृद्वता को आगे बढ़ाने का काम करती      हैं | 
उमाशंकर चौधरी : भाषा और शिल्प के संदर्भ में आशमा कौल की कविताएँ मुझे दीनानाथ कौल नादिम की कविताओं की याद दिलाती हैं |
देवीप्रसाद अवस्थी : यही मैं कहने जा रहा था | आपने भी गौर किया होगा कि कश्मीरी शब्दों के आंतरिक संगीत के प्रति विशेष रूप से सचेत रहने के कारण नादिम साहब ने कविता की सांगीतिक लय को नहीं छोड़ा | आशमा की कविताओं को पढ़ते हुए भी मुझे उनमें एक सांगीतिक लय सुनाई पड़ती है | दिलचस्प संयोग है कि इस दृष्टी से नादिम साहब की कविताओं का टोन आधुनिक कश्मीरी कविता से बहुत कम मेल खाता है; आशमा की कविताओं का टोन तो बिल्कुल ही अलग है |
उमाशंकर चौधरी : यह संयोग इसलिए और दिलचस्प है कि इसका आधार नादिम ने करीब पांच दशक पहले जब रखा था, आशमा तब शायद पैदा भी नहीं हुई होंगी | पचास के दशक में नादिम का स्वर एक निर्बाध निर्झर की तरह पूरे कश्मीर को अपने साथ बहा ले गया था | भाव, भाषा, शिल्प, संवेदना - हर क्षेत्र में और हर स्तर पर नादिम ने कश्मीरी कविता की पूरी दिशा ही बदल दी थी | नादिम के बाद कश्मीरी कविता ने बहुतेरे उतार-चढ़ाव देखे हैं और एक लम्बी यात्रा कर डाली है | आशमा तो इस यात्रा में बहुत बाद में शामिल हुई हैं |
देवीप्रसाद अवस्थी : आशमा की कविताओं को हम सिर्फ कश्मीरी कविता के संदर्भ में ही देखने-पहचानने की कोशिश क्यों कर रहे हैं ? मुझे तो आशमा की कविता एक खास ढंग की कविता जान पड़ती है जिसमें अनुभव-वस्तु या जीवन-यथार्थ के सूक्ष्म रूपों की विडम्बनामूलक पहचान दिखाई देती है | अपनी 'बूँदें' शीर्षक कविता में उन्होंने पतझड़ में भी बूंदों के गिरने की स्थितियों का जो आख्यान प्रस्तुत किया है, उसमें जीवन-यथार्थ के सूक्ष्म रूपों के प्रति सजगता को पहचाना जा सकता है |
उमाशंकर चौधरी : मैं उनकी 'शून्य' व 'जो मैं हूँ, वह मैं नहीं हूँ' शीर्षक कविताओं को यहाँ याद करना चाहूँगा, जो उनके संग्रह 'अभिव्यक्ति के पंख' में शायद प्रकाशित हुई हैं |
देवीप्रसाद अवस्थी : हाँ, यह दोनों कविताएँ 'अभिव्यक्ति के पंख' में हैं |
उमाशंकर चौधरी : उक्त दोनों कविताएँ भाषा के कारण मुझे उल्लेखनीय लगी हैं | आशमा की कविताओं की भाषा उनके द्वारा निर्मित की गई उनकी अपनी भाषा लगती    है | उन्होंने अपनी भाषा को संवेदना से जोड़ने का भरसक प्रयत्न किया है | 'जो मैं हूँ, वह मैं नहीं हूँ' शीर्षक कविता मैंने जब पहली बार पढ़ी थी, तो मुझे आभास हुआ था कि संवेदना की विराटता कई बार भाषा में भी अपने को प्रक्षेपित करने की अनजाने ही अकल्पनीय सामर्थ्य उत्पन्न कर देती है | ऐसी स्थिती में भाषा के प्रक्षेपण का कारण स्वयं भाषा और लेखक कम, संवेदना अधिक होती है; संवेदना के बिना बात उस मुकाम तक नहीं जा पाती | 'जो मैं हूँ, वह मैं नहीं हूँ' की दो पंक्तियाँ मैं नहीं भूल पाता हूँ - 'काँटों पर कोई जायेगा / जायेगा कोई कलियों पर' | बात बहुत सामान्य सी है, लेकिन आशमा ने अपनी कविता में इस बात को जिस तरह से कहा है, वह गहरे तक छूती और बेधती है |
देवीप्रसाद अवस्थी : आशमा की कविताओं की भाषा काव्य-संस्कार से जुड़ी भाषा है, जिसके स्रोत मुझे कश्मीरी कविता से जुड़ते लगते हैं | भाषा के प्रति उदासीन कवि न तो संवेदना को बढ़ा सकता है और न भाषा को |
उमाशंकर चौधरी : मुझे लगता है कि आशमा ने इस बात को समझा / पहचाना है | अपने पहले कविता संग्रह 'अनुभूति के स्वर' से अपने दूसरे कविता संग्रह 'अभिव्यक्ति के पंख' तक की अपनी यात्रा में आशमा ने भाषा के प्रति अपनी जागरूकता को प्रकट किया है |
देवीप्रसाद अवस्थी : आशमा की कविताओं को लेकर आपने जो कुछ भी कहा है, उससे उनकी कविताओं के प्रति मेरी उत्सुकता और बढ़ी है | आशमा के तीसरे कविता संग्रह 'बनाये हैं रास्ते' को मैं अवश्य ही पढ़ना चाहूँगा |
उमाशंकर चौधरी : हम उम्मीद कर सकते हैं कि जल्दी ही प्रकाशित होने वाले आशमा कौल के तीसरे कविता संग्रह 'बनाये हैं रास्ते' की कविताओं में जीवन-यथार्थ के और विविधतापूर्ण रूपों से हमारा परिचय होगा |

Friday, November 13, 2009

मुक्तिबोध की जीवन-कथा को समझने की कोशिश करते हुए हम वास्तव में अपने समय की सच्चाई तथा उसकी चुनौतियों को भी पहचान सकेंगे

नवंबर की 13 तारीख के नजदीक आते-आते मैं बेचैनी, निराशा और उम्मीद के मिलेजुले दबावों के बीच अपने आप को घिरा पाने लगता हूँ | ऐसे क्षण यूं तो कई बार आते हैं, लेकिन नवंबर की 13 तारीख के नजदीक आते-आते मैं इन क्षणों को खास तौर से अपने ऊपर हावी होते हुए पाता हूँ | अब तो मुझे बल्कि ऐसा लगने लगा है कि जैसे मेरे लिए नवंबर की 13 तारीख और बेचैनी, निराशा व उम्मीद का मिलाजुला अहसास एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं | पिछले वर्षों में जब कभी भी किसी सन्दर्भ में जरूरत पड़ने पर मैंने हिंदी के बड़े कवि मुक्तिबोध के जन्म की तारीख बताई है, तो सुनने वालों ने हैरानी जताई कि मुझे तमाम लोगों के जन्म की तारीख याद कैसे रह जातीं हैं | उन्हें लगता रहा कि मुझे यदि मुक्तिबोध - जिनके नाम पर कभी कोई सामाजिक समारोह होता हुआ नहीं सुना, सामाजिक रूप से जिन्हें कभी याद करते हुए नहीं पाया गया, और जिन्हें गुजरे हुए भी चार दशक से अधिक का समय हो गया है - के जन्म की तारीख याद है तो न जाने कितने लोगों के जन्म की तारीखें याद होंगी | पर सच यह है कि तारीखें याद रखने के मामले में मैं बहुत ही कच्चा हूँ | मुझे खुद हैरानी है कि मुक्तिबोध के जन्म की तारीख मुझे कैसे और क्यों याद रह गई है | मैं मुक्तिबोध का कोई अध्येता नहीं हूँ, मैंने उनपर कुछ लिखा - लिखाया नहीं है, उनकी कविताएँ पढ़ने की कोशिश जरूर की है | उनकी कविताओं को, एक पाठक के रूप में, हमेशा ही एक कठिन चुनौती के रूप में पाया है | पर इस चुनौती से कभी बचने या भागने की कोशिश नहीं की - मुक्तिबोध से बस इतना ही रिश्ता है | मुझे भी लगता है कि इतना सा रिश्ता तो इस बात का कारण नहीं हो सकता है कि मुझे उनके जन्म की तारीख ऐसे याद हो जाये कि दूसरे लोग मेरे बारे में गलतफहमियां पाल लें |
मुक्तिबोध की मौलिक जीवन-दृष्टी और एक रचनाकार के रूप में उनकी असाधारण प्रतिभा तो मेरा उनका मुरीद बनने का कारण है ही; लेकिन मुझे लगता है कि उनके जीवन की जो कथा रही है तथा विलक्षण प्रतिभा के बावजूद अपने जीवन में उन्हें जिस उपेक्षा का सामना करना पड़ा है और जिसके बाद भी उन्होंने अपने रचनात्मक व विचारधारात्मक संघर्ष से पीठ नहीं फेरी - उसके कारण ही उनका व्यक्तित्त्व मेरी याद में जैसे रच-बस गया है | यही वजह है कि 13 नवंबर की जिस तारीख को गजानन माधव मुक्तिबोध पैदा हुए, उस 13 नवंबर की तारीख को मैं भूल नहीं पाता हूँ | इस तारीख के नजदीक आते-आते मैं बेचैनी और निराशा इसलिए महसूस करता हूँ कि मुक्तिबोध को जिन कारणों से उपेक्षा का शिकार होना पड़ा, वह कारण अभी भी न सिर्फ मौजूद हैं, बल्कि और ज्यादा मजबूत ही हुए हैं; तथा उम्मीद का अहसास इसलिए करता हूँ कि तमाम कारणों के बाद भी मुक्तिबोध को वह जगह आखिर मिली ही जिसके की वह वास्तव में हक़दार हैं | मुक्तिबोध अपने जीवन में प्रायः उपेक्षित ही रहे, उनका कवि-व्यक्तित्व विचारणीय कम ही समझा गया | अधिकतर लोगों के अनुसार इसका कारण यह रहा कि मुक्तिबोध न तो परंपरा की धारा में बहने को राजी हुए, और न ही वह किसी को खुश करने के झंझटों में पड़े; अपने किसी स्वार्थ या अपनी किसी सुविधा के लिए वह कभी भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुए | अपनी उपेक्षा को उन्होंने अपने जैसे लोगों की नियति के रूप में ही देखा / पहचाना | उन्होंने कहा भी कि मौजूदा समाज - व्यवस्था में समाज और अपने प्रति ईमानदार व्यक्ति के सामने केवल दो ही विकल्प हैं - बेसबब जीना या सुकरात की तरह जहर पीना |
लेकिन यह मामले का सिर्फ एक पक्ष ही है | बाद में, अपनी मृत्यु के बाद मुक्तिबोध हालाँकि हिन्दी-साहित्य पर पूरी तरह छा गए, और उनका नाम लेना आधुनिकता, साहित्यिक समझदारी और जनपक्षधरता का लक्षण व सुबूत बन गया | इसलिए यह सवाल कुछ गहरी पड़ताल की मांग करता है कि मुक्तिबोध जीवन में अलक्षित क्यों रहे ? और यह सिर्फ मुक्तिबोध के साथ ही नहीं हुआ | देखा / पाया गया है कि प्रतिभाशाली कलाकार व्यावहारिक जीवन में प्रायः असफल ही रहते हैं, और उनकी प्रतिभा को बहुत बाद में पहचाना गया | कई एक मामले ऐसे भी मिलेंगे कि कलाकार की प्रतिभा को तो पहचाना गया, पर उन्हें ख्याति बाद में मिली | ख्याति दरअसल एक सामाजिक स्थिति है, सामाजिक स्वीकृति है | कलाकार अपनी मौलिकता या अद्वितीयता के कारण भी कभी - कभी ख्याति से वंचित रह जाते हैं | एक कवि के रूप में मुक्तिबोध ने लीक पर चलने से इंकार किया और उनकी कविता में संरचनात्मक मौलिकता, नवीनता और जटिलता को पाया गया | उनकी कविता की भाषा में सहज बोधगम्यता का अभाव भी पाया गया; और शायद यह भी एक कारण रहा कि मुक्तिबोध को सहज लोकप्रियता नहीं मिल पाई | दरअसल, मुक्तिबोध की कविता का वस्तुतत्त्व जिस तबके के लिए उपयोगी है, उनमें से अधिकांश लोगों के लिए उनकी कविता की भाषा सहज बोधगम्य नहीं है; और जिनके लिए उनकी कविता की भाषा बोधगम्य है उनमें से अधिकांश लोगों के लिए उनकी कविता में व्यक्त विचारधारा खतरनाक है| वस्तुतत्त्व और अभिव्यंजनाशिल्प के इस अंतर्विरोध के कारण भी मुक्तिबोध की कविता शीघ्र लोकप्रिय नहीं हो सकी |
मुक्तिबोध की कविता में जटिलता है, क्योंकि उनके जीवन में जटिलता थी | जटिलताएं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में होती हैं जो हर प्रकार के बाहरी दबावों के बावजूद अपने विचारों के लिए संघर्ष की जिंदगी जीता है | जिंदगी में सरलता या सपाटता वहां होती है जहाँ बाहरी और भीतरी द्वंद्व व तनाव का अभाव होता है | यूं तो अमूमन किसी भी व्यक्ति का जीवन संघर्षों से खाली नहीं है | यही कारण है कि प्रायः हर व्यक्ति का जीवन जटिलताओं का पुंज है | लेकिन संघर्ष और उससे उत्पन्न होने वाली जटिलताओं के कई रूप और स्तर होते हैं | अपने विचारों के लिए विरोधी शक्तियों से लगातार संघर्ष करना और उससे उत्पन्न पीड़ा को सहना एक बात है; और अपने अंतर्मन की कुंठाओं के द्वंद्व को ही जीवन - संघर्ष मान लेना तथा उससे उत्पन्न वेदना को आस्था की चीज समझकर उसका 'व्यवसाय' करना एक भिन्न किस्म की बात है | मुक्तिबोध जैसे कलाकार के जीवन को समझने का अर्थ है उनके जीवन के अस्तित्व - संघर्ष के प्रयासों को समझना | मुक्तिबोध की जीवन-कथा समाज और अपने प्रति ईमानदार संवेदनशील साहित्यकार के जीवन की एक अविस्मरणीय ट्रेजडी है | इस ट्रेजडी के लिए उत्तरदायी स्थितियों, शक्तियों और व्यक्तियों की खोज और पहचान मुक्तिबोध की जीवन-कथा को समझने के लिए अनिवार्य है | इस तरह से मुक्तिबोध की जीवन-कथा को समझने की कोशिश करते हुए हम वास्तव में अपने समय की सच्चाई तथा उसकी चुनौतियों को भी पहचान सकेंगे | मुक्तिबोध की जीवन-कथा इस बात का सुबूत ही है, जैसा कि हेमिंग्वे ने कहा है, कि 'मनुष्य को नष्ट किया जा सकता है, परन्तु उसको परास्त नहीं किया जा सकता|
यह बात आज, मुक्तिबोध के जन्मदिन के मौके पर, दोहराने से तमाम निराशाओं के बीच खासा बल मिलता है |