Monday, June 14, 2010

कृत्या की वर्कशॉप में विचाराधीन 'व्हाय पोएट्री मैटर्स' सवाल, जितना शास्त्रीय है उतना ही रचनात्मक भी है

'कृत्या' द्वारा 'व्हाय पोएट्री मैटर्स' विषय पर आयोजित की जा रही वर्कशॉप का निमंत्रण मिलते / देखते ही मुझे अभी हाल ही में प्रकाशित हुए कश्मीर की युवा कवयित्री आशमा कौल के तीसरे कविता संग्रह 'बनाए हैं रास्ते' की भूमिका में लिखी पंक्तियाँ याद हो आईं, जिनमें कहा गया है : 'मनुष्यता के भीतर कविता है और कविता के भीतर मनुष्यता |' किसी विद्वान द्वारा कही गई इस बात को याद करते हुए - कि कविता बड़े काम की चीज है; मगर उसका काम क्या है, कहना कठिन है - आशमा कौल ने लिखा है : 'मैं मानती हूँ कि कविता का काम वह है जो किसी और विधि से किसी और विधा में उस तरह संभव नहीं है | किसी फौरी जरूरत, किसी तात्कालिक आवश्यकता के लिये जरूरी नहीं कि कविता ही लिखी जाए | अगर ऐसी किसी जरूरत में कोई कविता लिखता भी है, तो यह सोचकर नहीं कि वह कविता लिख रहा है | ऐसी कोशिशों में भी कुछ अच्छी और कभी-कभार कोई महान कविता भी निकल आती है | लेकिन उतनी कविता ..... कविता की उतनी संभावना तो जीवन की हर कोशिश, कला की हर विधा में होती है |'
कविता को 'एक नये जीवन का सृजन जैसा अनुभव' मानने वालीं कश्मीर में जन्मी आशमा कौल ने कविता के सौंदर्यशास्त्र के एक आयाम को रखांकित करते हुए अपने इसी संग्रह की भूमिका में ही कहा हैं : 'वह पूर्ण तृप्ति की नहीं, अधूरी तृप्ति की कला है ! कि वह प्यास बुझाये भी और एक नई प्यास जगाये भी |'
'कृत्या' ने वर्कशॉप के लिये जो सवाल लिया है, वह कोई नया नहीं है | यह सवाल शायद तभी से नये-नये रूप धर कर सामने आता रहा है जबसे कविता को एक विधा के रूप में पहचाना गया होगा | लेकिन बार-बार चूंकि यह सवाल चर्चा में आता रहा है, इसलिए ऊपर से सरल दिखने वाला यह सवाल अपनी जटिलता का सुबूत भी पेश करता रहा है | मेरे लिये इस बात को रेखांकित करना ही किंचित रोमांचक रहा कि एक तरफ केरल में वर्कशॉप आयोजित करने की तैयारी कर रहीं रति सक्सेना और दूसरी तरफ दिल्ली में अपने तीसरे संग्रह की भूमिका लिख रहीं आशमा कौल कैसे एक ही विषय को अपने-अपने तरीके से निभाने की कोशिश कर रहीं हैं | जाहिर है कि यह सवाल जितना पुराना है उतना ही नया भी है | रति सक्सेना के वर्कशॉप के विषय और आशमा कौल के कविता संग्रह की भूमिका के संदर्भ को प्रतीक रूप में लें, तो यह भी कह सकते हैं कि यह सवाल जितना शास्त्रीय है उतना ही रचनात्मक भी है | यहाँ रामधारी सिंह दिनकर की उस चुटकी को याद कर लेना भी प्रासंगिक होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जिस तरह आलोचकों ने लंबे समय से कविता पर तर्क-वितर्क किया है, कविता कब न गुम हो जाती, लेकिन गनीमत है कि मन कविता को पहचानता है |' लेकिन चूंकि मन की इस पहचान से काम नहीं चल सकता, इसलिए कविता के स्वरूप पर बार-बार विचार करना जरूरी समझा गया और विचार किया भी गया | बार-बार विचार करने की ज़रूरत इसलिए भी समझी गई, क्योंकि जितने भी आचार्यों, विद्वानों और आलोचकों ने कविता के स्वरूप पर विचार किया है, उनका विचार अधिक से अधिक एक खास युग की कविता तक ही सीमित रहा है और पूरी कविता उनकी पकड़ से प्रायः बाहर ही रही है |
प्लेटो ने कविता को लोकोत्तर अमूर्त दृष्टि से देखा, जबकि उनके शिष्य अरस्तू का नजरिया अनुभववादी तथा मूर्त था | प्लेटो वस्तु के रूप को अमूर्त चेतना में स्थित प्रत्यय का अनुकरण मानते थे और अरस्तु रूप को वस्तु से अभिन्न ही नहीं, वस्तु के कारणों में से भी मानते थे | इसीलिए अनुकरण को प्लेटो जहाँ यथार्थ से दूर और यथार्थ को विकृत करने वाला मानते थे वहीं अरस्तु उसे यथार्थ से बढ़ कर मानते थे | कविता को इसीलिए इतिहास से श्रेष्ठ मानते थे कि यह इतिहास की तरह विशेष तथ्यों तक सीमित न रह कर संभावनाओं को आत्मसात भी करती है | अमेरिकी कथाकार और कवि एडगर एलेन पो ने अपने एक व्याख्यान 'द पोएटिक प्रिंसिपल' में कविता को सौंदर्य की लयात्मक सृष्टि (द रिदमिकल क्रिएशन ऑफ ब्यूटी) कहा और उसके प्रभाव को आत्मा का गहन और शुद्व उन्नयन (इंटेंस एंड प्योर एलिवेशन ऑफ द सोल) के रूप में रेखांकित किया, जिसे सौंदर्य के अनुचिंतन के परिणाम के रूप में भी देखा गया | एडगर उपदेशवाद और उपयोगितावाद के घोर विरोधी थे | उनके अनुसार सौंदर्य के अनुचिंतन से मिलने वाला आनंद शुद्व तीव्र उदात्त और साथ ही तर्कातीत होता है | एडगर ने सुंदर में उदात्त को भी सम्मिलित कर सौंदर्य-सृजन को ही कविता का विषय माना | कविता का लक्ष्य उनके अनुसार स्वयं कविता ही है जो परम भव्य, पवित्र तथा गरिमामयी होती है | अगर उससे वस्तुजगत का सत्य भी प्रकाशित होता हो, एडगर के अनुसार तो वह मात्र प्रासंगिक स्थिति है अनिवार्य नहीं | फ्रांसीसी कवि बॉदलेयर पर एडगर एलेन पो का गहरा असर था | इसी असर के चलते उन्होंने अपनी कविताओं को 'एक नैतिक वक्तव्य' भी कहा | हालाँकि नैतिकता की उनकी अवधारणा - उपदेशात्मक काव्य के समर्थकों और ऑर्नल्ड व तॉल्सतॉय की नीतिवादिता से भिन्न हैं | नैतिकता को वह जीवन से अलग करके नहीं देखते, वह बल्कि जीवन में उसके घुलेमिले होने का समर्थन करते हैं | उनकी दृष्टी में कविता इस अर्थ में नैतिक होती है कि उसमें मानव जीवन की 'असंगतियों के जादू, पतन की चमक और पाप के फूलों' का भी अंतर्भाव होता है |
'व्हाय पोएट्री मैटर्स' को लेकर हिंदी में भी कोई कम माथापच्ची नहीं हुई है | इस संदर्भ में, 'कविता क्या है' शीर्षक से लिखे गये हिंदी के तीन महत्त्वपूर्ण आलोचकों के लेखों में व्यक्त किए गये विचारों को देखा जा सकता है | 'कविता क्या है' शीर्षक से पहला लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है जिसमें उन्होंने लिखा है : 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है | हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं |' इसी लेख में उन्होंने कहा है : 'कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती   है |' आचार्य शुक्ल के इन विचारों को रीति-काव्य के विरोध में रचा गया माना गया और इसकी पृष्ठभूमि में द्विवेदीयुगीन हिंदी कविता को पहचाना गया, जिसने कविता की पूर्व-निर्धारित सीमाएँ तोड़कर उसका लोक तक प्रसार किया था | 'कविता क्या है' शीर्षक से दूसरा लेख डाक्टर नगेंद्र ने लिखा, जिसमें उन्होंने कविता के लिये तीन तत्त्व अनिवार्य बतलाये : रमणीय अनुभूति, उक्ति-वैचित्र्य और छंद | गौर किया जा सकता है कि छायावाद में हृदय की अनुभूति, अभिव्यक्ति की लाक्षणिकता और संगीत-योजना तीनों पर जोर था | डाक्टर नगेंद्र ने रमणीय अनुभूति को रस कहा है और उसे ही साध्य मानते हुए छंद को उसका साधन-भर माना है | उन्होंने लिखा है : 'कविता रस के साहित्य की उस विधा का नाम है जिसका माध्यम छंद है |' इस तरह उनका काव्य-लक्षण भी छायावाद तक ही सीमित है | 'कविता क्या है' शीर्षक तीसरा लेख नामवर सिंह का है | नामवर सिंह ने नई कविता से प्रेरित होकर कविता को परिभाषित करने की कोशिश की | उन्होंने कहा : 'छायावादी काव्य-रचना की प्रक्रिया जहां भीतर से बाहर की ओर है, वहाँ नई कविता की रचना-प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है | एक में रूप पर भाव का आरोपण है तो दूसरी में रूप का भाव में रूपांतरण है |' उन्होंने यह भी कहा : 'नई कविता में जिस प्रकार रूप भाव ग्रहण करता है, तथ्य सत्य हो जाता है; और अन्ततः अनुभूति निर्वैयक्तिक हो जाती है उससे स्वयं कविता की 'संरचना' में भी गहरा परिवर्तन आ जाता है |' नामवर सिंह के इसी लेख में व्यक्त हुए दो और कथन गौर करने योग्य हैं : 'नई कविता की इस बनावट या संरचना को ध्यान में रखे बिना आज कविता की कोई भी परिभाषा अधूरी रहेगी' तथा 'यदि नई कविता को कविता के रूप में जांचना-परखना है तो काव्यानुभूति की इस बदली हुई बनावट को ध्यान में रखकर ही कविता की परिभाषा करनी पड़ेगी |' नामवर सिंह का यह लेख भी करीब चालीस वर्ष पहले का है | उसके बाद से आज तक कविता में जो परिवर्तन हुए हैं उन्हें देखते हुए यह परिभाषा भी काफी पुरानी पड़ गई लगती है | कविता में निस्संदेह निर्वैयक्तिकता का भी महत्त्व है और उसकी संरचना का भी; लेकिन आज कविता निर्वैयक्तिकता और वैयक्तिकता के विभिन्न अनुपातों में मिश्रण के साथ लिखी जा रही है और उसकी संरचना भी नई कविता में संरचना की जो अवधारणा थी उससे अनेक बार हटी हुई होती है | नई कविता के दौर में भी मुक्तिबोध की कविता की संरचना भिन्न किस्म की थी | ऐसी स्थिति में उक्त लक्षणों से कविता-मात्र को समझने या पहचानने की तो बात बहुत संगत नहीं है | अन्ततः प्रश्न की कठिनता अपनी जगह पर कायम है और ऐसे में 'कृत्या' के वर्कशॉप आयोजन का महत्त्व बढ़ भी जाता है और प्रासंगिक भी हो जाता है |

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