Monday, July 12, 2010

द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने अपार धीरज और गहन अन्तरात्मिक सम्पृक्ति से जयशंकर प्रसाद की रचनाओं का जो अध्ययन-विवेचन किया, उसमें रचना का आनंद भी मिलता है और आलोचना/समीक्षा का वैचारिक पक्ष भी

द्वारिका प्रसाद सक्सेना स्मृति न्यास की इधर सामने आई सक्रियता के सौजन्य से स्वर्गीय डॉक्टर द्वारिका प्रसाद सक्सेना (18 फरवरी 1922 - 22 जुलाई 2007) की जो दबी-छिपी रचनाएँ सामने आई हैं, उनमें यशस्वी किंतु उपेक्षित कर दिये गये कवि जयशंकर प्रसाद को एक नये नज़रिए से देखने का मौका मिलता है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने प्रसाद की रचनाओं के अपने अध्ययन-विवेचन में एक बड़ा काम इस आलोचना-रूढ़ी को तोड़ने का किया है कि प्रसाद आदर्शवादी हैं | उल्लेखनीय है कि आलोचकों व समीक्षकों के लिये जयशंकर प्रसाद एक खासी चुनौती रहे हैं और इस बात पर खासी बहस रही है कि उन्हें एक आदर्शवादी माना जाए या पक्का यथार्थवादी ? प्रसाद को लेकर द्वारिका प्रसाद सक्सेना का जो भी अध्ययन-विवेचन अभी तक सामने आया है, उससे यही आभास होता है कि द्वारिका प्रसाद सक्सेना आलोचकों व समीक्षकों की उस जमात में हैं जो प्रसाद को पक्के यथार्थवादी के रूप में देखता/पहचानता है | इस जमात के लोगों ने माना/बताया है कि प्रसाद निरंतर दृष्टा तथा प्रखर मनोविश्लेषक थे | उनका दर्शन उन्हें वह चीज़ देता है जिसे अंग्रेज़ी में 'विज़्डम' कहते हैं और जो शायद गीतोक्त 'समत्वबुद्वि' या 'स्थितप्रज्ञता' के समीप पड़ती है | यहाँ यह रेखांकित करना प्रासंगिक होगा - और साथ ही द्वारिका प्रसाद सक्सेना की वैचारिक स्पष्टता व प्रखरता को समझने में मददगार भी होगा - कि डॉक्टर रामविलास शर्मा ने 1959 में 'समालोचक' का जो 'यथार्थवाद विशेषांक' सम्पादित किया था उसमें द्वारिका प्रसाद सक्सेना का 'प्रसाद के आदर्शवादी चिंतन में यथार्थवादी दृष्टिकोण' शीर्षक से एक महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ था |
द्वारिका प्रसाद सक्सेना प्रसाद साहित्य के गभीर अध्येता थे और उन्होंने प्रसाद साहित्य का विस्तृत अध्ययन-विवेचन किया है | उनका जो काम अभी तक प्रकाशित हो सका है, उसमें 'प्रसाद दर्शन', 'आँसू-भाष्य', 'कामायनी भाष्य', 'प्रसाद का मुक्तक-काव्य', 'कामायनी में काव्य संस्कृति और दर्शन', 'प्रसाद के नाटकों में इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और कला' आदि प्रमुख हैं | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने प्रसाद का अध्ययन-विवेचन उस समय किया जबकि दूसरे लोग प्रसाद से 'बचने' की कोशिश करते थे | प्रसाद का साहित्य आलोचकों व समीक्षकों के लिए दरअसल इसलिए चुनौतीपूर्ण रहा क्योंकि उनकी कविताएँ गहरे पैठने की माँग करती हैं | प्रसाद पहले पाठ में ही आकर्षित करने वाले कवि नहीं हैं | व्यस्क जिज्ञासाओं से उन्मथित वह ऐसे कवि हैं जो अपनी भावनाओं को जीवन-जगत के प्रति एक दृष्टि अर्जित करने के अनिवार्य संघर्ष में नियोजित करने की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं | प्रसाद की रचनाओं में भाव की दुरूहता है, न कि भाषा की | ऐसे में, जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में 'उतरना' कोई हँसी-खेल नहीं रहा; और - शायद - इसीलिए अधिकतर समीक्षकों व आलोचकों ने प्रसाद को बाईपास करने में ही अपनी भलाई समझी | यह जानना, द्वारिका प्रसाद सक्सेना के प्रति सम्मान को और बढ़ाता है कि दूसरे लोग जब प्रसाद से 'बच' रहे थे, तब उन्होंने प्रसाद की रचनाओं से जूझने का काम किया | अपार धीरज और गहन अन्तरात्मिक सम्पृक्ति से उन्होंने प्रसाद की रचनाओं का अध्ययन-विवेचन किया | द्वारिका प्रसाद सक्सेना की आत्मकथा में दिये गये तथ्यों से जोड़ कर इस बात को यदि देखें तो हम पाते हैं कि जिस समय वह जीवन-संघर्षों का सामना कर रहे थे, लगभग उसी समय उन्होंने प्रसाद की रचनाओं से भी 'जूझना' शुरू कर दिया था | यह तथ्य द्वारिका प्रसाद सक्सेना की वैचारिक दृढ़ता और प्रतिबद्वता का ही सुबूत है |
और इस बात का सुबूत भी कि किसी रचना के मूल्यांकन के लिए आवश्यक अवयवों की द्वारिका प्रसाद सक्सेना को न सिर्फ पहचान थी, बल्कि वह उनसे परिपूर्ण भी थे | रचना के मूल्यांकन के लिए मूल्यचेतना जरूरी है और मूल्यचेतना के लिए सामाजिक चेतना | इस प्रकार आलोचनात्मक विवेक के मूल में आलोचक का सामाजिक विवेक होता है जो बहुत दूर तक वर्तमान के बोध से जुड़ा होता है | इसीलिए आलोचना व्यापक अर्थ में विचारधारात्मक क्रियाशीलता मानी जाती है | यह ठीक है कि यदि आलोचक के पास किसी कृति को समझने और उसकी व्याख्या करने की क्षमता नहीं है तो विचारधारा के मंत्र से कृति का द्वार नहीं खुल सकता; लेकिन यह भी सच है कि यदि आलोचक के कलात्मक विवेक के साथ उसका सामाजिक विवेक भी सक्रिय न हो तो वह कृति की सामाजिक सार्थकता की भी पहचान नहीं कर सकता | सार्थक रचना की तरह सार्थक आलोचना भी अपने समय और समाज की हलचलों तथा वैचारिक व संवेदनात्मक परिवर्तनों के बारे में सजग होती है तभी वह रचनाओं से स्वतंत्र और कभी-कभी उनके समानांतर अपनी सामाजिक दृष्टि निर्मित करती है जिससे वह विचारशीलता विकसित होती है जो अपने युग के विवेक का प्रतिनिधित्व करती है | ऐसी आलोचना केवल साहित्यिक ही नहीं होती, वह सामाजिक आलोचना भी होती है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना की आलोचनापरक पुस्तकों के साथ उनकी 'मेरी आत्मकथा' पढ़ने पर हम इस तथ्य को और भली प्रकार समझ सकते हैं |
एक अच्छी साहित्यिक रचना की तरह सार्थक आलोचना भी माँग करती है कि लेखक उन सवालों से पूरी सजगता, संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ टकराए जो मौजूदा परिस्थितियों में हमारी मानवीय गरिमा को परिभाषित-प्रतिष्ठित करने में अनिवार्य रूप से प्रासंगिक हो गये हैं | मुक्तिबोध जिन्हें ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं उनमें से रचना में पहले की प्रमुखता होती है और आलोचना में दूसरे की | रचना जहाँ हमारी मानवीय गरिमा से जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों को एक सघन व प्रखर अनुभव के रूप में व्यक्त करती है वहीं आलोचना में ऐसे अनुभवों का सैद्वांतिक विश्लेषण पेश किया जाता है | रचना का ज्ञानात्मक आधार, वहाँ मौजूद हमारी स्थिति और मानसिकता की पहचान, मुख्यतः प्रज्ञा (intuition) से प्राप्त स्वतःस्फूर्त संज्ञान के रूप में हमारे सामने होता है जबकि आलोचना में इस प्रकार के संज्ञान को भी सैद्वांतिक विश्लेषण में ढाल दिया जाता है | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने इसे जिस कौशल से साधा है, वह आकर्षित भी करता है और प्रभावित भी | शायद यही कारण हो कि एक पाठक के रूप में मुझे द्वारिका प्रसाद सक्सेना के लिखे हुए में रचना का आनंद भी मिला और आलोचना/समीक्षा का वैचारिक पक्ष भी | द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने जितने विविधतापूर्ण विषयों पर काम किया है, उसकी आधी-अधूरी सूची पर एक उड़ती-सी नज़र भी रेखांकित करती है कि उनके सोच-विचार का दायरा खासा व्यापक और बहुआयामी था | उनके आलोचना कर्म में विषयों की यह व्यापकता और बहुआयामिता इस बात का सुबूत भी है और कारण भी कि वह अपने समय के अनिवार्य रूप से प्रासंगिक बने हुए सवालों से पूरी सजगता, संवेदनशीलता और संजीदगी के साथ जूझ रहे थे | ऐसे में, द्वारिका प्रसाद सक्सेना स्मृति न्यास ने उनके लिखे हुए को सामने लाने का जो प्रयास शुरू किया है, वह - देर से शुरू होने के बावजूद - महत्वपूर्ण तो है ही, साथ ही प्रसांगिक भी है |

Monday, June 14, 2010

कृत्या की वर्कशॉप में विचाराधीन 'व्हाय पोएट्री मैटर्स' सवाल, जितना शास्त्रीय है उतना ही रचनात्मक भी है

'कृत्या' द्वारा 'व्हाय पोएट्री मैटर्स' विषय पर आयोजित की जा रही वर्कशॉप का निमंत्रण मिलते / देखते ही मुझे अभी हाल ही में प्रकाशित हुए कश्मीर की युवा कवयित्री आशमा कौल के तीसरे कविता संग्रह 'बनाए हैं रास्ते' की भूमिका में लिखी पंक्तियाँ याद हो आईं, जिनमें कहा गया है : 'मनुष्यता के भीतर कविता है और कविता के भीतर मनुष्यता |' किसी विद्वान द्वारा कही गई इस बात को याद करते हुए - कि कविता बड़े काम की चीज है; मगर उसका काम क्या है, कहना कठिन है - आशमा कौल ने लिखा है : 'मैं मानती हूँ कि कविता का काम वह है जो किसी और विधि से किसी और विधा में उस तरह संभव नहीं है | किसी फौरी जरूरत, किसी तात्कालिक आवश्यकता के लिये जरूरी नहीं कि कविता ही लिखी जाए | अगर ऐसी किसी जरूरत में कोई कविता लिखता भी है, तो यह सोचकर नहीं कि वह कविता लिख रहा है | ऐसी कोशिशों में भी कुछ अच्छी और कभी-कभार कोई महान कविता भी निकल आती है | लेकिन उतनी कविता ..... कविता की उतनी संभावना तो जीवन की हर कोशिश, कला की हर विधा में होती है |'
कविता को 'एक नये जीवन का सृजन जैसा अनुभव' मानने वालीं कश्मीर में जन्मी आशमा कौल ने कविता के सौंदर्यशास्त्र के एक आयाम को रखांकित करते हुए अपने इसी संग्रह की भूमिका में ही कहा हैं : 'वह पूर्ण तृप्ति की नहीं, अधूरी तृप्ति की कला है ! कि वह प्यास बुझाये भी और एक नई प्यास जगाये भी |'
'कृत्या' ने वर्कशॉप के लिये जो सवाल लिया है, वह कोई नया नहीं है | यह सवाल शायद तभी से नये-नये रूप धर कर सामने आता रहा है जबसे कविता को एक विधा के रूप में पहचाना गया होगा | लेकिन बार-बार चूंकि यह सवाल चर्चा में आता रहा है, इसलिए ऊपर से सरल दिखने वाला यह सवाल अपनी जटिलता का सुबूत भी पेश करता रहा है | मेरे लिये इस बात को रेखांकित करना ही किंचित रोमांचक रहा कि एक तरफ केरल में वर्कशॉप आयोजित करने की तैयारी कर रहीं रति सक्सेना और दूसरी तरफ दिल्ली में अपने तीसरे संग्रह की भूमिका लिख रहीं आशमा कौल कैसे एक ही विषय को अपने-अपने तरीके से निभाने की कोशिश कर रहीं हैं | जाहिर है कि यह सवाल जितना पुराना है उतना ही नया भी है | रति सक्सेना के वर्कशॉप के विषय और आशमा कौल के कविता संग्रह की भूमिका के संदर्भ को प्रतीक रूप में लें, तो यह भी कह सकते हैं कि यह सवाल जितना शास्त्रीय है उतना ही रचनात्मक भी है | यहाँ रामधारी सिंह दिनकर की उस चुटकी को याद कर लेना भी प्रासंगिक होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि 'जिस तरह आलोचकों ने लंबे समय से कविता पर तर्क-वितर्क किया है, कविता कब न गुम हो जाती, लेकिन गनीमत है कि मन कविता को पहचानता है |' लेकिन चूंकि मन की इस पहचान से काम नहीं चल सकता, इसलिए कविता के स्वरूप पर बार-बार विचार करना जरूरी समझा गया और विचार किया भी गया | बार-बार विचार करने की ज़रूरत इसलिए भी समझी गई, क्योंकि जितने भी आचार्यों, विद्वानों और आलोचकों ने कविता के स्वरूप पर विचार किया है, उनका विचार अधिक से अधिक एक खास युग की कविता तक ही सीमित रहा है और पूरी कविता उनकी पकड़ से प्रायः बाहर ही रही है |
प्लेटो ने कविता को लोकोत्तर अमूर्त दृष्टि से देखा, जबकि उनके शिष्य अरस्तू का नजरिया अनुभववादी तथा मूर्त था | प्लेटो वस्तु के रूप को अमूर्त चेतना में स्थित प्रत्यय का अनुकरण मानते थे और अरस्तु रूप को वस्तु से अभिन्न ही नहीं, वस्तु के कारणों में से भी मानते थे | इसीलिए अनुकरण को प्लेटो जहाँ यथार्थ से दूर और यथार्थ को विकृत करने वाला मानते थे वहीं अरस्तु उसे यथार्थ से बढ़ कर मानते थे | कविता को इसीलिए इतिहास से श्रेष्ठ मानते थे कि यह इतिहास की तरह विशेष तथ्यों तक सीमित न रह कर संभावनाओं को आत्मसात भी करती है | अमेरिकी कथाकार और कवि एडगर एलेन पो ने अपने एक व्याख्यान 'द पोएटिक प्रिंसिपल' में कविता को सौंदर्य की लयात्मक सृष्टि (द रिदमिकल क्रिएशन ऑफ ब्यूटी) कहा और उसके प्रभाव को आत्मा का गहन और शुद्व उन्नयन (इंटेंस एंड प्योर एलिवेशन ऑफ द सोल) के रूप में रेखांकित किया, जिसे सौंदर्य के अनुचिंतन के परिणाम के रूप में भी देखा गया | एडगर उपदेशवाद और उपयोगितावाद के घोर विरोधी थे | उनके अनुसार सौंदर्य के अनुचिंतन से मिलने वाला आनंद शुद्व तीव्र उदात्त और साथ ही तर्कातीत होता है | एडगर ने सुंदर में उदात्त को भी सम्मिलित कर सौंदर्य-सृजन को ही कविता का विषय माना | कविता का लक्ष्य उनके अनुसार स्वयं कविता ही है जो परम भव्य, पवित्र तथा गरिमामयी होती है | अगर उससे वस्तुजगत का सत्य भी प्रकाशित होता हो, एडगर के अनुसार तो वह मात्र प्रासंगिक स्थिति है अनिवार्य नहीं | फ्रांसीसी कवि बॉदलेयर पर एडगर एलेन पो का गहरा असर था | इसी असर के चलते उन्होंने अपनी कविताओं को 'एक नैतिक वक्तव्य' भी कहा | हालाँकि नैतिकता की उनकी अवधारणा - उपदेशात्मक काव्य के समर्थकों और ऑर्नल्ड व तॉल्सतॉय की नीतिवादिता से भिन्न हैं | नैतिकता को वह जीवन से अलग करके नहीं देखते, वह बल्कि जीवन में उसके घुलेमिले होने का समर्थन करते हैं | उनकी दृष्टी में कविता इस अर्थ में नैतिक होती है कि उसमें मानव जीवन की 'असंगतियों के जादू, पतन की चमक और पाप के फूलों' का भी अंतर्भाव होता है |
'व्हाय पोएट्री मैटर्स' को लेकर हिंदी में भी कोई कम माथापच्ची नहीं हुई है | इस संदर्भ में, 'कविता क्या है' शीर्षक से लिखे गये हिंदी के तीन महत्त्वपूर्ण आलोचकों के लेखों में व्यक्त किए गये विचारों को देखा जा सकता है | 'कविता क्या है' शीर्षक से पहला लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है जिसमें उन्होंने लिखा है : 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है | हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिये मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं |' इसी लेख में उन्होंने कहा है : 'कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती   है |' आचार्य शुक्ल के इन विचारों को रीति-काव्य के विरोध में रचा गया माना गया और इसकी पृष्ठभूमि में द्विवेदीयुगीन हिंदी कविता को पहचाना गया, जिसने कविता की पूर्व-निर्धारित सीमाएँ तोड़कर उसका लोक तक प्रसार किया था | 'कविता क्या है' शीर्षक से दूसरा लेख डाक्टर नगेंद्र ने लिखा, जिसमें उन्होंने कविता के लिये तीन तत्त्व अनिवार्य बतलाये : रमणीय अनुभूति, उक्ति-वैचित्र्य और छंद | गौर किया जा सकता है कि छायावाद में हृदय की अनुभूति, अभिव्यक्ति की लाक्षणिकता और संगीत-योजना तीनों पर जोर था | डाक्टर नगेंद्र ने रमणीय अनुभूति को रस कहा है और उसे ही साध्य मानते हुए छंद को उसका साधन-भर माना है | उन्होंने लिखा है : 'कविता रस के साहित्य की उस विधा का नाम है जिसका माध्यम छंद है |' इस तरह उनका काव्य-लक्षण भी छायावाद तक ही सीमित है | 'कविता क्या है' शीर्षक तीसरा लेख नामवर सिंह का है | नामवर सिंह ने नई कविता से प्रेरित होकर कविता को परिभाषित करने की कोशिश की | उन्होंने कहा : 'छायावादी काव्य-रचना की प्रक्रिया जहां भीतर से बाहर की ओर है, वहाँ नई कविता की रचना-प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर है | एक में रूप पर भाव का आरोपण है तो दूसरी में रूप का भाव में रूपांतरण है |' उन्होंने यह भी कहा : 'नई कविता में जिस प्रकार रूप भाव ग्रहण करता है, तथ्य सत्य हो जाता है; और अन्ततः अनुभूति निर्वैयक्तिक हो जाती है उससे स्वयं कविता की 'संरचना' में भी गहरा परिवर्तन आ जाता है |' नामवर सिंह के इसी लेख में व्यक्त हुए दो और कथन गौर करने योग्य हैं : 'नई कविता की इस बनावट या संरचना को ध्यान में रखे बिना आज कविता की कोई भी परिभाषा अधूरी रहेगी' तथा 'यदि नई कविता को कविता के रूप में जांचना-परखना है तो काव्यानुभूति की इस बदली हुई बनावट को ध्यान में रखकर ही कविता की परिभाषा करनी पड़ेगी |' नामवर सिंह का यह लेख भी करीब चालीस वर्ष पहले का है | उसके बाद से आज तक कविता में जो परिवर्तन हुए हैं उन्हें देखते हुए यह परिभाषा भी काफी पुरानी पड़ गई लगती है | कविता में निस्संदेह निर्वैयक्तिकता का भी महत्त्व है और उसकी संरचना का भी; लेकिन आज कविता निर्वैयक्तिकता और वैयक्तिकता के विभिन्न अनुपातों में मिश्रण के साथ लिखी जा रही है और उसकी संरचना भी नई कविता में संरचना की जो अवधारणा थी उससे अनेक बार हटी हुई होती है | नई कविता के दौर में भी मुक्तिबोध की कविता की संरचना भिन्न किस्म की थी | ऐसी स्थिति में उक्त लक्षणों से कविता-मात्र को समझने या पहचानने की तो बात बहुत संगत नहीं है | अन्ततः प्रश्न की कठिनता अपनी जगह पर कायम है और ऐसे में 'कृत्या' के वर्कशॉप आयोजन का महत्त्व बढ़ भी जाता है और प्रासंगिक भी हो जाता है |

Thursday, May 13, 2010

प्रकृति-बोध का संदर्भ, अज्ञेय को अपने समकालीन कवियों के बीच एक अलग पहचान देता है

कविता में पर्यावरण संबंधी चिंताओं व सरोकारों की अभिव्यक्ति की 'खोजबीन' के दौरान अज्ञेय की 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं पर गौर किया तो एक दिलचस्प तथ्य यह पाया कि उनमें न सिर्फ पर्वतीय-प्रदेश की प्रकृति के कुछ अनुपम व मनोरम दृश्य उकेरे गये हैं बल्कि उन सबको खो देने का डर और पीड़ा भी अभिव्यक्त हुई है | यह तथ्य मुझे दिलचस्प इसलिए लगा क्योंकि यह तथ्य प्रकृति-बोध के संदर्भ में अज्ञेय को अपने समकालीन कवियों से अलग पहचान देता है | अज्ञेय की कविताओं में प्रकृति के मनोरम चित्रों का एक संग्रह भर नहीं दिखता है, बल्कि सौंदर्य और लय के नैसर्गिक संसार के नष्ट होने की पीड़ा भी उनमें व्यक्त होती नज़र आती है | कहीं-कहीं उसे बचा लेने की पीड़ा भरी इच्छा व कोशिश भी दिखती है | और ठीक इसी मुकाम पर अज्ञेय का प्रकृति-काव्य छायावाद से बिल्कुल अलग राह पकड़ता नज़र आता है | उल्लेखनीय है कि छायावादी कवियों को प्रकृति की छांह में एक तरह की आश्वस्ति मिलती थी; सामाजिक बंधनों की जकड़ से घबराये हुए मन को 'द्रुमों की मृदु छाया में' शांति मिलती थी | लेकिन अज्ञेय के लिये प्रकृति छायावादियों की तरह रोमांटिक शरणस्थली ही बन कर सामने नहीं आती, पीड़ित मानवता की तरह पीड़ित प्रकृति की करुण पुकार भी उन्हें सुनाई पड़ती है | वह यदि एक ओर 'बिखरे रेवड़ को / दुलार से टेरती-सी / गड़रिये की बाँसुरी की तान' सुनते हैं, तो दूसरी ओर 'भट्टी से उठे धुएँ' के फंदे में 'सिहरते-लहरते शिशु धान' भी देखते      हैं |
अज्ञेय ने प्रकृति को लेकर बहुत कविताएँ लिखी हैं | इसी आधार पर माना गया है कि छायावाद के अवसान के बाद प्रकृति के प्रति जो नई सौंदर्य-चेतना, एक नया राग-संबंध विकसित होता है - उसकी प्रामाणिक अभिव्यक्ति अज्ञेय की कविता में हुई है | उल्लेखनीय यह जानना भी हुआ कि उनमें अपने कवि-जीवन के आरंभ से अंत तक प्रकृति के प्रति एक खास तरह का लगाव बना रहा और इस लगाव के खरेपन को उनकी कविताएँ बार-बार प्रमाणिक करती रहीं | यूं तो केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन ने भी प्रकृति को लेकर काफी क़विताएँ लिखी हैं; लेकिन इनकी प्रकृति-संबंधी कविताओं से अज्ञेय की प्रकृति-संबंधी कविताओं का मामला इसलिए अलग है क्योंकि अज्ञेय की प्रकृति का स्वरूप शहरी है | उनकी कविताओं में ग्रामीण क्षेत्र की प्रकृति का चित्रण प्रायः नदारत ही मिलेगा | अज्ञेय की कविता में जो फूल, पौधे, पक्षी आदि आये हैं वे आमतौर पर ऐसे हैं जो शहर-जीवन में मिलते-दिखते हैं | उनकी कविताओं में पर्वतीय-प्रदेश व समुद्र आदि का जो चित्रण है, वह भी अपनी अर्थ-व्यंजना में शहरी रुचि का ही द्योतक है | अज्ञेय के भावबोध का स्वरूप ही शहरी नहीं है, बल्कि उनकी भाषा की प्रकृति भी उसी किस्म की है | तत्सम शब्दों की बहुलता को सुसंस्कृत शहरी-रुचि के संदर्भ में ही देखा/पहचाना जा सकता है | हालाँकि, अज्ञेय की कविताओं में कहीं-कहीं लोक-भाषा के शब्दों का सृजनात्मक प्रयोग भी दिख जाता है, लेकिन वह उनकी कविताओं में कोई पहचान नहीं बना सके हैं | यह कमी, लेकिन अज्ञेय की कविताओं की खूबी बन गई है |
अज्ञेय का प्रकृति-बोध छायावादी बोध से ही अलग नहीं है, वह नई कविता के प्रकृति-बोध में भी अपनी प्रखरता को दर्शाता है | अपने निबंध 'कला का जोखिम' में निर्मल वर्मा ने अज्ञेय के प्रकृति-बोध को रेखांकित करते हुए लिखा है : 'वह पहाड़ों को देख कर मुग्ध होते हैं, तो नीचे जंगलों में पेड़ों के कटने का आर्तनाद भी सुनते हैं, बल्कि कहें, यह कटने का बोध उनके प्रकृति के लगाव में 'एंगुइश', एक गहरी दरार पैदा कर जाता है | उनकी कविताएँ अपने प्रतिद्वंद्वी रूपकों के बीच एक तरह से 'क्रॉस रेफरेंस' बन जाती हैं - सचेत अंतर्मुखी आधुनिकता और प्राकृतिक सौंदर्य के बीच |' अज्ञेय के प्रकृति-बोध को निर्मल वर्मा ने 'आधुनिक बोध की पीड़ा' का नाम दिया है | गौर करने की बात यह है कि पर्यावरण संबंधी चिंताओं व सरोकारों को अज्ञेय जब अपनी कविताओं में अभिव्यक्त कर रहे थे, उस समय हमारे देश में पर्यावरणवादी आंदोलनों अथवा पर्यावरण-संबंधी चिंताओं के स्वर मुखर नहीं हुए थे | 'नंदा देवी' श्रृंखला की कविताओं में व्यक्त विचार आज के पर्यावरणवादी आंदोलनों के नेताओं के विचार से चकित करने वाली समानता रखते हैं | इस संदर्भ में यह बात जैसे एक बार फिर से साबित होती है कि एक सजग कवि युग-चेतना के पद-चाप की आहट दूसरों से पहले सुन लेता है |
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' के जन्मशती वर्ष में इस बात को पहचानना और रेखांकित करना खास तरह का सुख देता है |    

Tuesday, April 20, 2010

प्रदीप जिलवाने की कविताएँ भावनाओं-प्रवृत्तियों-मनोवृत्तियों के साथ रूप के बदलते संबंधों को उदघाटित करती सहजभाव की कविताएँ हैं

प्रदीप जिलवाने की 'नींद' शीर्षक से तीन कविताएँ अभी हाल ही में पढ़ने को मिलीं, तो बिंबों और छवियों के जरिये भावनाओं के यथार्थ की प्रामाणिकता के नये अर्थ खुलते से नज़र आये | यह कविताएँ जन्मती तो भावनाओं के यथार्थ के तनाव से लगती हैं, लेकिन यह भावनाओं के यथार्थ की यथातथ्यता में जाने की बजाए उसके मानसिक प्रक्षेपण को ज्यादा महत्त्व देती दिखती हैं | यहाँ भावनाओं का यथार्थ अनेकआयामी है और चीजें / बातें न सिर्फ पर्त दर पर्त एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, बल्कि आवेगपूर्ण भी हैं तथा गतिशील भी | वर्ष 1978 में जन्में प्रदीप मध्य प्रदेश के खरगोन में एक अर्द्व सरकारी संस्थान में नौकरी करते हुए साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं और कविताएँ लिखते हैं | पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं हैं | उनकी 'नींद' शीर्षक कविताओं ने मुझे इसलिए प्रभावित किया क्योंकि मैंने महसूस किया कि यह किसी नायक / नायकों की नहीं बल्कि चरित्र / चरित्रों की कविताएँ हैं जो जीवन को उसकी विशिष्टता में नहीं उसके विस्तार और विविधता में रचना चाहती है | इसमें गूढ़ार्थ नहीं, निहितार्थ महत्त्वपूर्ण हैं | यूं तो यह सहजभाव की कविताएँ हैं, किंतु इन्होंने मुझे भावनाओं-प्रवृत्तियों-मनोवृत्तियों के साथ रूप के बदलते संबंधों पर सोचने-विचारने के लिये प्रेरित किया | उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो मौलिक भावनाओं और रूढ़िबद्व रूपों तथा दूसरी तरफ मौलिक रूपों और रूढ़िबद्व भावनाओं के बीच के तनाव को कलात्मक विकास का सबसे मजबूत अभिप्रेरक यूं ही नहीं माना गया है | अभिव्यक्ति की कोई भी पद्वति, एक समय जितनी भी वैयक्तिक और जीवंत रही हो, एक खास समय सीमा के बाद अपना स्वतःस्फूर्त चरित्र बनाए नहीं रख सकती और इसी तरह कोई भी रूप, चाहे जितना दृढ़ हो, रूढ़ि के बतौर पैदा नहीं हुआ होगा |  
भावनाएं भी उतनी ही रूढ़ हो सकती हैं जितने कि चरित्र, स्थितियां या प्लाट | भावनाओं का इतिहास होता है, उनका भी उत्थान-पतन होता है, उनके ऐसे रूप होते हैं जो व्यापक और सर्वमान्य हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं | मानव इतिहास के विभिन्न युग इस मामले में बहुत अलग-अलग नहीं होते कि एक युग में अधिक संवेदनशीलता या भावनाओं की अधिक स्वतःस्फूर्तता होती है और दूसरे में कम; बल्कि उन चलनों के मामले में अधिक अलग-अलग होते हैं जिनके अनुसार कुछेक भावनाओं को 'प्रदर्शित करने' अथवा नहीं करने का निर्णय होता है | इस तथ्य से अधिक और किसी चीज से कलात्मक रूपों की रूढ़िबद्वता का अहसास नहीं होता कि अधिकांश रचनाओं में एक तत्त्व का अभाव होता है जिसे सामान्यतः अपरिहार्य माना जाता है और वह है सच्ची, तीव्र और ईमानदार अनुभूतियां | निश्चय ही इस दावे का समर्थन नहीं किया जा सकता कि जो कुछ ईमानदारी से महसूस हो वही कलात्मक तौर पर प्रभावशाली और सौंदर्यात्मक रूप से मूल्यवान होगा | दरअसल, अत्यंत गैर ईमानदार भावनात्मक प्रवृत्तियों से भी मूल्यवान और उत्कृष्ट कृतियां पैदा हो सकती हैं | शायद यह भी माना जा सकता है कि सफल कलात्मक रचनाओं के लिये मजबूत भावनात्मक लगाव की अपेक्षा प्रस्तुति के विषय से एक निश्चित भावनात्मक दूरी की जरूरत होती है | दिदेरो के 'परादोक्स स्युर ल कोमेदिया' में हमें यह पढ़ने / जानने को मिला ही है कि, एक नियम के बतौर, लेखक जो कहना चाहता है उसे जितनी ईमानदारी और तीव्रता से महसूस करेगा, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही कमजोर होगी | आंसू से गीली आँख साफ-साफ नहीं देख सकती, भावना से कांप रहे मुख पर नियंत्रण कठिन होता है; कुल मिलाकर वास्तविक कलाकार के बजाए किसी शौकिया कलाकार की भावनाएं ज्यादा सच्ची और गहनतर होती हैं | और हालाँकि यह हमेशा सही नहीं होता कि गहनतम भावनाओं से बदतर कविताएँ ही पैदा हों, लेकिन इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि वास्तविक अनुभूतियों से जो कृति जन्म ले वह अवास्तविक भावनाओं से जन्म लेने वाली प्रस्तुति से अधिक रोचक होगी |
ईमानदारी कोई सौंदर्यात्मक गुण नहीं है | वास्तव में वह एक नैतिक गुण है | कहा ही नहीं गया है, देखा / पहचाना भी जा सकता है कि एक अच्छा व्यक्ति खराब लेखक भी हो सकता है | ईमानदारी और कलात्मक क्षमता का स्वाभाविक मेल 'कालोस कागाथोस' पर आधारित एक दार्शनिक स्वप्न है, और सभी सांस्कृतिक मूल्यों में एकता की अधिभूतवादी पूर्वमान्यता के बतौर मान लिया गया है | इस विचार के सामने जो पहली कठिनाई आती है वह यह कि इसके लिये कोई कसौटी नहीं खोजी जा सकती कि साहित्य में, कविता में वास्तविक क्या है - इस अर्थ में कि उसमें काल्पनिक नहीं वास्तविक भावनाओं को अभिव्यक्त किया गया है | स्वयं रचनाओं के भीतर लेखक की ईमानदारी का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं पाया जा सकता | अगर यह मान भी लिया जाये कि साहित्य में, कविता में जो कुछ ईमानदार लगे वह ईमानदार ही है, तो भी समस्या हल नहीं होती; क्योंकि गैर ईमानदारीपूर्वक प्रदर्शित और स्वीकृत, बनावटी और ढोंग भरी प्रवृत्तियों से भी उत्कृष्ट व मूल्यवान रचनाएँ पैदा हो सकती हैं, हुई ही हैं | असल में जो दिक्कत दरपेश है वह ईमानदारी - गैरईमानदारी के तमाम सवालों से अलग है | क्योंकि ईमानदार हों अथवा न हों, भावनाएं कलात्मक उत्कर्ष के लिहाज से प्रासंगिक ही नहीं होतीं : दरअसल, मानव आत्मा के अन्य तमाम पहलुओं और अभिव्यक्तियों के मुकाबले इनमें कोई खास कलात्मक विशिष्टता नहीं होती |
एक व्यक्ति जो कुछ महसूस करता है अथवा नहीं करता है, वह कलाकार के बतौर नहीं व्यक्ति के बतौर क्रिया है | कलाकार की भावनाएं उसी तरह कच्ची सामग्री हैं, जिस तरह वे चरित्र जिनका वह पर्यवेक्षण करता है, अथवा वह समाज जिसका वह अध्ययन करता है | किसी खास भावना को प्रस्तुत करने के लिये उसे महसूस करना जरूरी नहीं, वैसे ही जैसे किसी हत्यारे का चित्रण करने के लिये हत्यारा - या 'उदात्तीकृत हत्यारा' भी - होना जरूरी नहीं | उसे केवल इन भावनाओं की छवि अपने भीतर पैदा करनी होती है; और हो सकता है कि स्वयं भावनाओं की अनुपस्थिति इसकी वास्तविक पूर्वशर्त हो | कुछ भी हो, कल्पित भावनाओं की साहित्य में, कविता में अत्यंत मौलिक और रुचिकर अभिव्यक्ति हो सकती है; जबकि ईमानदार भावनाओं को अकसर निर्वैयक्तिक और उदासीन रूपों का पर्दा ओढ़ना पड़ता है | संक्षेप में कह सकते हैं कि कभी भावनाएं रूढ़िबद्व होती हैं, तो कभी रूप रूढ़िबद्व होते हैं |
प्रदीप जिलवाने की 'नींद' शीर्षक कविताओं ने इस विषय पर सोचने-विचारने के लिये प्रेरित किया, इसके लिये उनका आभार |  

Thursday, February 18, 2010

रश्मि सानन की ग़ज़लों में एक गहरी मानवीय पीड़ा के साथ व्यक्त कोमल भावनाओं व नियति का जो संघर्ष है, वह दरअसल सपनों और यथार्थ का संघर्ष है

ग्वालियर में आयोजित संगीत संध्या में गुलाम फरीद को ग़ज़ल गाते सुना तो उनके अंदाज से प्रभावित होने से और खुल कर दाद देने से अपने आप को रोक नहीं सका | ग्वालियर गया किसी और काम से था, लेकिन एक परिचित से संगीत संध्या के आयोजन की सूचना मिली तो उत्सुकता के साथ उसमें जाने का निश्चय किया | कार्यक्रम में पहुँचने में थोड़ी देर हो गई थी | मैं जब पहुंचा तब गुलाम फरीद पहली ग़ज़ल गाना शुरू कर चुके थे | तीस वर्ष की उम्र और भारी शरीर के मालिक गुलाम फरीद जबलपुर से अपना गायन प्रस्तुत करने आये थे | उनके गायन में शास्त्रीयता का पुट था | मधुरता से सुर का लगाव, प्रत्येक सुर की धीरे-धीरे बढ़त, स्वर की स्वाभाविकता और शुद्वता ने उनके गायन को रसमय बना दिया था | उनके द्वारा गाई जा रही ग़ज़ल के शब्दों पर गौर किया तो वह मुझे सुनी / पढ़ी सी लगी | गुलाम फरीद ने कार्यक्रम के पहले दौर में चार ग़ज़लें गाईं और मैंने चारों को सुना / पढ़ा सा पाया तो मैंने याद करने की ज़रूरत महसूस की कि इन्हें मैंने आखिर कहाँ सुना / पढ़ा है | जल्दी ही मुझे याद आ गया कि यह रश्मि सानन की ग़ज़लें हैं जो उनके संग्रह 'तन्हा तन्हा' में प्रकाशित हैं |
रश्मि सानन की ग़ज़लों का यह संग्रह पिछले वर्ष ही प्रकाशित हुआ है | उनके इस पहले संग्रह ने ग़ज़ल की दुनिया में खासी प्रशंसा प्राप्त की है, यह तो मेरी जानकारी में था; लेकिन यह देख / पा कर मुझे किंचित अचरज भी हुआ कि ग़ज़ल गायकी में अपनी पहचान को स्थापित करने में लगे एक युवा गायक ने एक बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम में रश्मि सानन की ग़ज़लों पर भरोसा किया | कार्यक्रम के बाद के दौर में गुलाम फरीद ने हालाँकि प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों को गाया, लेकिन मैंने देखा / पाया कि बाद में वह रंग नहीं जमा जैसा रश्मि सानन की ग़ज़लों को गाते समय जमा था | ऐसा शायद इसलिए भी हुआ हो, क्योंकि प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों को श्रोता कई-कई बार सुन चुके हैं और गुलाम फरीद के अंदाज के अनूठेपन के बावजूद वह ग़ज़लें श्रोताओं को कोई नया अनुभव नहीं दे पाईं हों; या शायद मुझे ऐसा लगा हो | इस सबके बीच, मेरी जिज्ञासा यह जानने की थी कि गुलाम फरीद को रश्मि सानन की ग़ज़लों में ऐसा क्या लगा कि उन्होंने प्रतिष्ठित शायरों की ग़ज़लों के बजाये उनसे अपने कार्यक्रम की शुरुआत की ? या यह सिर्फ इसलिए हुआ कि गुलाम फरीद किन्हीं नई ग़ज़लों से अपने कार्यक्रम की शुरुआत करना चाहते थे और रश्मि सानन की ग़ज़लें उन्हें संयोग से मिल गई          थीं ? 
गुलाम फरीद से, कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब मैंने बात की और अपनी जिज्ञासा उनके सामने व्यक्त की तो उन्होंने जो कहा उसे सुनकर मैंने यही नहीं जाना कि गुलाम फरीद सचमुच रश्मि सानन की ग़ज़लों के अच्छे प्रशंसक हैं, बल्कि यह भी जाना की एक अच्छी रचना किस तरह से यात्रा करती है और कैसे अपने प्रशंसकों को तलाश लेती है ? गुलाम फरीद ने बताया कि 'तन्हा तन्हा' संग्रह उन्हें उनके दिल्ली के एक शुभचिंतक ने उपलब्ध करवाया था और उसे पढ़कर वह उस में की कुछेक ग़ज़लों से इतने प्रभावित हुए थे कि पहले ही पाठ में उन्होंने उन ग़ज़लों को अपने कार्यक्रम में प्रस्तुत करने का फैसला कर लिया था | गुलाम फरीद से रश्मि सानन की ग़ज़लों का आकलन सुनकर मुझे लगा कि ग़ज़लों ने उन्हें गहरे से प्रभावित किया है | गुलाम फरीद ने बताया कि "इन ग़ज़लों का इन्हिराफ़ दरअसल उस ज़हन का ज़ाइदा है जो जदीद अहद का जदीद ज़हन है, जो मशिरक़ो मग्रिब की शाइरी में राइज (प्रचलित) इश्क़िया तसव्वुरात से वाकिफ़ है, जो इनसान को किसी मख्सूस खाने में रखकर नहीं देखता, बल्कि उसका मौज़ूअ ऐसा इंसान है, जिसको उसकी मुतज़ाद सिफ़ात और मुतसादिम एह्सासातो-जज्बात से अलग करके देखा ही नहीं ज़ा सकता | इन ग़ज़लों के अश्आर में मुहब्बत के लाखों ख़्वाबों के हाइल होने  का ज़िक्र मिलता है और मुहब्बत की मायूसी भी क़ाबिले-सद शुक्र बन जाती       है |"
गुलाम फरीद ने रश्मि की ग़ज़लों के बारे में बोलना शुरू किया तो फिर वह बताते चले कि "यह अंदाज़ा लगाने में कोई दुश्वारी नहीं होती कि ज़िन्दगी बहैसियते मज्मूइ इन ग़ज़लों में एक नई ज़िन्दगी के रूप में तो ज़ाहिर होती ही है, मुहब्बत जैसा रिवायती मौज़ूअ भी, तब्दीलशुदा ज़िन्दगी की नई अक्दार और नए एहसास लेकर सामने आता है | इस मुहब्बत में तनव्वोअ है, रंग रंगी है, उसके मुतज़ाद अंदाज़ हैं और ख़ुद अपनी कमज़ोरियों क़ा एतीराफ़ है - यहाँ ज़िन्दगी कोई मुनजमिद और गैर-मुतहर्रिक चीज़ नहीं, बल्कि हर लम्हा तब्दील होती है और इंसान को दाख़िली व ख़ारिजी सतहों पर तब्दील करती रहती है - यहाँ शाइर को अपने मुतज़ाद ज़ज्बात और पसो-पेश में मुब्तिला रखने वाली कैफ़ियात के इज्हार में कोई झिझक और हिचकचाहट नहीं |" फरीद का कहना रहा कि "रश्मि की ग़ज़ल में ईक़ान (निश्चय, यकीन) और ख़ुश-अकीदगी का जो फ़ुक्दान (अभाव, कमी) मिलता है, उससे साफ़ पता चलता है कि वह अपने तज्रिबे और इदराक से ज़िन्दगी की तफ्हीम की कोशिश में मसरूफ़ हैं | ज़िन्दगी उनके लिये अकेले झेलने का अमल है, जिसमें अपने वजूद के अलावा इंसान का कोई सहारा नहीं होता; यही वजह है कि उनके यहाँ ज़िन्दगी के मुतज़ाद रूप भी मिलते हैं और वजूद की मुतसादिम क़ुव्वतों का गैर-तर्जीही इज़्हार भी पाया जाता है |" फरीद ने जैसे निष्कर्ष निकला और बताया कि "रश्मि ज़िन्दगी के छोटे बड़े और मुख्तलिफ़ नौइयत के तज़िरबात को एक इकाई की शक्ल दे सकती हैं और उन पर एक साथ गौर करने की अहलियत रखती हैं, चुनाँचे वह अपने मुतफ़र्रिक़ और मुनतशीर तज़िरबात को एक अजीम तज़िरबे की शक्ल दे सकने का हुनर रखती हैं |"
गुलाम फरीद से रश्मि सानन की ग़ज़लों का यह विश्लेषण सुन कर मैंने 'तन्हा तन्हा' को फिर से पढ़ने की ज़रूरत महसूस की | दोबारा पढ़ा तो मैंने गौर किया कि रश्मि की ग़ज़लों में एक और विशिष्टता मिलती है जो 'दिखती' तो आम है लेकिन सचमुच में 'होती' कहीं-कहीं ही है - यह विशिष्टता है उनकी ग़ज़लों की सम्प्रेषणीयता | रश्मि की ग़ज़लें लगभग पारदर्शी होने की हद तक सम्प्रेषणीय हैं - काव्यात्मक स्तर पर सम्प्रेषणीय | यह नहीं कि रश्मि की ग़ज़लों में अनुभव का सरलीकरण है या जटिल अनुभवों से वह कतरा कर गुजर जाना चाहती हैं - लेकिन यदि वहाँ अनुभव अपनी जटिलता के साथ सम्प्रेषणीय हो पाता है तो यह उनके काव्यकौशल का ही परिणाम है - हालाँकि मुझे उनकी ग़ज़लें स्पोंटेनियस ही लगी हैं | उनकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई सम्प्रेषणीयता को मैं इसलिए भी एक अनूठी घटना की तरह देखता हूँ क्योंकि उनकी ग़ज़लें अपने शब्दों की प्रामाणिकता को बनाये रख कर भी सम्प्रेषणीय हो सकी हैं | रश्मि प्रगाढ़ ऐंद्रिक संवेदना की कवियित्री हैं और यह ऐंद्रिक संवेदन उनकी ग़ज़लों में खासी सघनता और परिमाण में व्यंजित होता है | उनकी ग़ज़लों में एक गहरी मानवीय पीड़ा और त्रासद नियति के दर्शन होते हैं | अपने सपनों और यथार्थ का संघर्ष उनकी ग़ज़लों में व्यक्त कोमल भावनाओं व नियति का संघर्ष है | कोमलता और निर्मम नियति का द्वैध रश्मि की ग़ज़लों की वास्तविक पहचान भी है तथा ताकत भी है | रश्मि के काव्य के प्रगीतात्मक रूप की परिपक्वता की प्रखरता व गहराई इसलिए भी प्रभावित करती है, क्योंकि वह रूप जीवन की बुनियादी और निजी अनुभूतियों में से उपजा लगता है |
गुलाम फरीद ने मुझे रश्मि सानन की ग़ज़लों को नये सिरे से देखने के लिये प्रेरित किया और एक नया नजरिया दिया, इसके लिये मैं गुलाम फरीद का वास्तव में बहुत आभारी  हूँ |

Sunday, January 31, 2010

राग तेलंग की कविताएँ राजनीतिक संदर्भों को व्यक्त करतीं और उनसे साक्षात्कार करातीं दिखती हैं

राग तेलंग की एक छोटी सी कविता ने 'कविता और राजनीति' के रिश्ते को उलट-पलट कर देखने के लिये मजबूर किया | 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में राग तेलंग की 'एक दिन' शीर्षक कविता पढ़ी तो पहली बार में वह जोश से भरा एक बड़बोला बयान भर लगी | प्रकाशित पांच कविताओं में यही कविता मुझे सबसे कमजोर भी    लगी | लेकिन मैंने महसूस किया कि कविताएँ पढ़ लेने के बाद के दिनों में मेरे जहन में घूमफिर कर 'एक दिन' की पंक्तियाँ ही जगह बनाने की कोशिश कर रहीं हैं | उनकी इस कोशिश में कब, मैं कविता और राजनीति के रिश्ते पर विचार करने लगा, यह मुझे खुद पता नहीं चला | कविता और राजनीति के रिश्ते पर विचार करते हुए मैं राग तेलंग की सभी कविताओं को एक बार फिर पढ़ गया, तो मैंने पाया कि व्यापक अर्थ में उनकी सभी कविताएँ राजनीतिक ही हैं | हालाँकि उनकी किसी भी कविता में कोई राजनीतिक संदर्भ साफ तौर पर नज़र नहीं आता है | उनकी कविताओं में, राजनीतिक संदर्भ में थोड़ा-बहुत साफ 'बोलती' कोई कविता दिखती है तो वह 'एक दिन' ही है | किंतु, 'कई चेहरों की एक आवाज' शीर्षक कविता भी कोई कम राजनीतिक अर्थ देती हुई नहीं लगी | इस कविता की दो पंक्तियों - 'एक चेहरे की कई आवाजें होती हैं / और कई चेहरों की एक आवाज होती है' - ने 'बताया' कि राग तेलंग को राजनीतिक संदर्भ का गहरा और सही बोध है | मुझे नहीं मालुम कि राग तेलंग ने सोच-विचार कर अपनी कविताओं में राजनीतिक संदर्भ दिये/लिये हैं; या वह उनकी सोच की स्वाभाविकता के चलते खुद व खुद प्रकट हो गये हैं | कविताओं के साथ प्रकाशित उनके परिचय में उनके कई-एक संग्रहों के प्रकाशित होने की जानकारी दी गई है, पर दुर्भाग्य से मैं उनका कोई संग्रह नहीं देख सका हूँ | कवि के रूप में राग तेलंग से मेरा 'परिचय' इन्हीं पांच कविताओं का है | इन कविताओं में राजनीतिक संदर्भ 'देखने' और पहचानने के बावजूद मैं इन्हें ठेठ राजनीतिक कविताओं के  रूप में नहीं देखता हूँ |
राग तेलंग की 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित कविताओं को मैं इस कारण ही राजनीतिक मान रहा हूँ, क्योंकि वह राजनीतिक संदर्भों को व्यक्त करतीं और उनसे साक्षात्कार करातीं दिखती हैं | कविता राजनीति से दो स्तरों पर साक्षात्कार करती/कराती है : एक घटना के स्तर पर और दूसरे, अभिप्रायों के स्तर पर | साक्षात्कार के स्तर ही कविता के स्तर हैं | यह स्तर बहुत-कुछ कवि के मन की बनावट और समय के दबाव पर निर्भर करते हैं | वास्तव में कवि के लिये राजनीति एक स्तर पर मनुष्य की हालत का साक्षात्कार है तो एक अन्य स्तर पर इस साक्षात्कार का साधन भी है | कवि का उद्देश्य कविता द्वारा चाहे अपनी अस्मिता की खोज करना हो, चाहे मनुष्य की दशा और समाज के संकट से साक्षात्कार करना हो, हर हालत में राजनीति का उपयोग किए बिना, और उसी के माध्यम से असली हालत को पहचाने बिना वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता | कोई भी सार्थक और समर्थ कविता किसी-न-किसी स्तर पर परिवेश से मनुष्य के संबंध को, मनुष्य से मनुष्य के संबंध को, मनुष्य के अपने-आप से संबंध को नये सिरे से परिभाषित करती है जो राजनीति से बचकर और बाहर रहकर नहीं किया जा सकता |
एक तबका रहा है जो मानता और कहता रहा है कि राजनीति के संसर्ग से कविता भ्रष्ट हो जाती है | कविता को भ्रष्ट होने से 'बचाने' की इस तबके की कोशिशों के चलते कविता से उस जीवंत और सर्जनात्मक तत्त्व को निकाल बाहर करने की कार्रवाई की गई जो कविता को मनुष्य का सबसे मूल्यवान और अनोखा दस्तावेज बनाता है | इस तबके के लोगों ने इस तथ्य की अनदेखी करने की ही कोशिश की कि कविता का और राजनीति का संबंध कोई नया नहीं है | ऋग्वेद और महाभारत से लगाकर शूद्रक, विशाखदत्त, चंदवरदाई और भारतेंदु तक न जाने कितने नाम गिनाये जा सकते हैं जो अपनी रचनाओं में राजनीति को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते रहे हैं |  व्यापक जीवनदृष्टि और 'अनुभूति की प्रामाणिकता' के नाम पर प्रत्यक्ष अनुभव के बीच संबंध खोजने और स्पष्ट करने के कवियों के अंतःसंघर्ष के साथ लिखी गई कविताओं में - भले ही वह राजनीति का निषेध करने का दावा करते हुए लिखी गई हों - राजनीति  को साफ-साफ देखा/पहचाना गया | कविता कभी भी राजनीति से अलग नहीं हो पाई | किसी-किसी कविता को राजनीति से अलग बताने/दिखाने की कोशिश हालाँकि खूब हुई | कविता और राजनीति के रिश्ते पर तमाम बार बहसें हो चुकी हैं, लेकिन फिर भी यह रिश्ता विवाद का विषय बना हुआ है, तो इसका कारण भी 'राजनीति' ही है | मजे की बात यह है कि हर कोई मानता है कि लेखक का कर्तव्य है कि वह सदा अपने आधारभूत सत्य का उदघाटन करता रहे, और विकृति के पीछे छिपे सत्य का आविष्कार करता रहे | ऐसा करते हुए कोई 'राजनीति' से भला कैसे बच सकता है ? 
'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित राग तेलंग की कविताओं में वैचारिकता की जो सक्रियता है, वह इन कविताओं को उल्लेखनीय बनाती है | राग तेलंग की इन कविताओं में राजनीतिक संदर्भ तो व्यक्त होता है, लेकिन वह यहाँ इस स्वाभाविकता से व्यक्त होता है कि विचार और संवेदना का पारंपरिक द्वैत यहाँ व्यर्थ हो जाता है लेकिन जिन्हें किसी निश्चित विचारधारा का समर्थन या आश्वासन प्राप्त नहीं है | जाहिर है कि एक कवि के रूप में उनके कुछ आग्रह और सरोकार हैं जो उनकी इन कविताओं में स्पष्ट रूप से झलकते हैं | इनकी किसी न किसी तरह की परंपरा उनके कृतित्त्व में खोजी जा सकती है, यह मैं इसलिए नहीं कह सकता क्योंकि इनसे पहले की उनकी कविताएँ मैंने नहीं देखी हैं | मैं विश्वास जरूर कर  सकता हूँ कि 'समकालीन भारतीय साहित्य' के नये अंक में प्रकाशित राग तेलंग की कविताएँ उनकी पिछली कविताओं से आगे की कविताएँ ही होंगी |

Monday, January 25, 2010

कविता को 'कला' मानने की वकालत और शमशेर बहादुर सिंह की कविता

भारत के शीर्ष कवि शमशेर बहादुर सिंह के जन्म का सौंवा वर्ष शुरू होते होते एक दिलचस्प इत्तफाक के चलते इटली के ख्यातिप्राप्त आलोचक रोबेर्तो कालास्सो की इस दशक के शुरू में आई पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद 'लिटरेचर एण्ड द गॉड्स' पढ़ने को    मिला | इसमें कविता को 'कला' मानने की नये सिरे से वकालत की गयी है | 'लिटरेचर एण्ड द गॉड्स' के शमशेर बहादुर सिंह के जन्म का सौंवा वर्ष शुरू होते होते 'मिलने' को मैंने एक दिलचस्प इत्तफाक इसीलिए कहा, क्योंकि शमशेर बहादुर सिंह की कविता को कविता से भी ज्यादा कला के रूप में ही देखा/पहचाना गया है | शमशेर की कविता की दुनिया अर्थ की नहीं, बल्कि ध्वनियों की - तिलस्मी व जादुई ध्वनियों की - दुनिया है | इसीलिए ख्यातिप्राप्त आलोचक रोबेर्तो कालास्सो की कविता को 'कला' मानने की वकालत को पढ़ते हुए मुझे सहज स्वाभाविक रूप से शमशेर बहादुर सिंह की कविता ही याद     आई | रोबेर्तो प्रचलित अर्थ में 'आधुनिकतावादी' हैं, इसलिए अपने मत की स्थापना के लिये उन्होंने नीत्शे, प्रूस्त आदि का खूब सहारा लिया | पुस्तक के एक प्रमुख और अंतिम लेख 'एब्सोल्युट लिटरेचर' में वे कहते हैं कि साहित्य विचार के भारी फर्शी पत्थरों के बीच घास की तरह उगता है | फिर यह कि यदि ज्ञान सिर्फ खोज न होकर आविष्कार है, तो उसका मतलब यह है कि उसमें अनुरूपता का प्रबल तत्त्व है | उसके बाद वे नीत्शे का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं : 'सत्य क्या है ? रूपकों की एक चलन्त सेना |' नीत्शे रूपकों के निर्माण को मनुष्य की बुनियादी प्रकृति बतलाते हैं, जिसके बाद उसका रास्ता यथार्थ से हटकर मिथक और सामान्यतः कला की तरफ चला जाता है | प्रूस्त कवि के भीतर सक्रिय रहस्यमय नियमों की बात करते हुए यह मत प्रकट करते हैं कि वह सभी चीजों के सौंदर्य का अनुभव करता है और हमें कराता है, जैसे उसके लिये पानी का गिलास हीरों से कम नहीं, न ही हीरे उसके लिये पानी के गिलास से कम हैं | स्वभावतः उन्होंने कविता का जन्म उन क्षणों में माना है, जब कवि अपने को चेतन मानस और भौतिक जगत से अलग कर लेता है | ये क्षण 'अभी' बहुत सशक्त हैं, लेकिन जल्दी ही गुम हो जा सकते हैं; क्योंकि कवि अधिक देर तक उनका बंदी नहीं रह सकता, उनसे निकल कर अपनी वास्तविक दुनिया में लौट आ सकता है और एक खास ढंग से जीने का रास्ता अख्तियार कर उस 'खजाने' को गँवा दे सकता है, जिसे वह अपने भीतर ढो रहा होता    है | जाहिर है कि जैसे मात्र विचार कविता नहीं है, वैसे ही उसका आत्यंतिक रूप से निषेध करनेवाली मात्र यह कला भी नहीं | शमशेर बहादुर सिंह ने दीर्घ स्वरों के द्वारा अपनी कविता में अर्थगहनता भरने का जो कौशल 'दिखाया' है, वह अद्भुत तो है ही; साथ ही रोबेर्तो कालास्सो के कहे हुए को भी समझने में मदद करता है |
शमशेर का रचना - संसार इंद्रधनुषी संसार है जिसमें सूर्य है, नदियाँ हैं, पहाड़ हैं, चिड़ियाँ हैं, प्रार्थना है, शाम है और एक भौतिक तथा वैदिक अकेलापन है | यह संसार इतना निजी, बल्कि आत्मीय है कि वह शमशेर के लिये जैसे लक्ष्मण-रेखा बन गया | जब भी शमशेर ने इस लक्ष्मण-रेखा को पार करने की कोशिश की, उनकी कविता भंग होती हुई दिखी, उसकी शर्तें और बनावट चरमराती हुई लगी | इसके बावजूद उन्होंने बार-बार इस लक्ष्मण-रेखा को पार करने का काम किया | शमशेर बार-बार स्वयं अपनी ही खींची रेखा को लाँघ कर एक ऐसी दुनिया में प्रवेश कर जाते रहे जिसकी ध्वनियाँ और आकार पराये नज़र आते | इसी क्रम में शमशेर ने राजनीतिक चेतनावाली भी कविताएँ लिखी, लेकिन उन कविताओं को उनकी सबसे कमजोर कविताओं के रूप में देखा / पहचाना गया | उनकी ऐसी कविताओं में 'अम्न का राग' शीर्षक कविता को हालाँकि एक अपवाद के
रूप में रेखांकित किया जा सकता है, जिसे सही अर्थों में एक महान कविता माना गया | शमशेर वास्तव में प्रेम और सौंदर्य के विलक्षण गायक थे और उन्हीं के माध्यम से उन्होंने अपने युग की समस्याओं से उद्वेलित होकर अपनी कविताओं में बहुत उदात्त रूप में मानव-मूल्यों की स्थापना की | उनकी शाब्दिक मितव्ययिता, उनका
सूक्ष्म लय-बोध और उनकी भव्य बिम्ब-योजना हिंदी कविता की एक उपलब्धि है | इसका प्रमाण उनके आरंभिक दोनों कविता संग्रहों - 'कुछ कविताएँ' और 'कुछ और कविताएँ' - में देखा / पाया जा सकता है |
शमशेर की कविता का ढांचा बुनियादी तौर पर एक सिंबॉलिस्ट कवि की कविता का ढांचा है | वह घटनाओं का संहार कर, स्थान और स्थितियों का लोप कर, केवल संगीत और चित्र की सृष्टि करता है | माना गया है कि शमशेर बहादुर सिंह की कविता अपनी अवधारणा में चित्रकला है, और अपने प्रभाव में संगीत है | उसे केवल कविता कहना, उसके प्रभाव व उसकी उपलब्धियों को कम करके आंकना और छोटा करना है | भारत के
ख्यातिप्राप्त कवि शमशेर बहादुर सिंह ने जो बात अपनी कविता से कही, इटली के ख्यातिप्राप्त आलोचक रोबेर्तो कालास्सो ने वही बात अपनी पुस्तक 'लिटरेचर एण्ड द गॉड्स' में कही है |