Tuesday, April 20, 2010

प्रदीप जिलवाने की कविताएँ भावनाओं-प्रवृत्तियों-मनोवृत्तियों के साथ रूप के बदलते संबंधों को उदघाटित करती सहजभाव की कविताएँ हैं

प्रदीप जिलवाने की 'नींद' शीर्षक से तीन कविताएँ अभी हाल ही में पढ़ने को मिलीं, तो बिंबों और छवियों के जरिये भावनाओं के यथार्थ की प्रामाणिकता के नये अर्थ खुलते से नज़र आये | यह कविताएँ जन्मती तो भावनाओं के यथार्थ के तनाव से लगती हैं, लेकिन यह भावनाओं के यथार्थ की यथातथ्यता में जाने की बजाए उसके मानसिक प्रक्षेपण को ज्यादा महत्त्व देती दिखती हैं | यहाँ भावनाओं का यथार्थ अनेकआयामी है और चीजें / बातें न सिर्फ पर्त दर पर्त एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं, बल्कि आवेगपूर्ण भी हैं तथा गतिशील भी | वर्ष 1978 में जन्में प्रदीप मध्य प्रदेश के खरगोन में एक अर्द्व सरकारी संस्थान में नौकरी करते हुए साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं और कविताएँ लिखते हैं | पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रकाशित होती रहीं हैं | उनकी 'नींद' शीर्षक कविताओं ने मुझे इसलिए प्रभावित किया क्योंकि मैंने महसूस किया कि यह किसी नायक / नायकों की नहीं बल्कि चरित्र / चरित्रों की कविताएँ हैं जो जीवन को उसकी विशिष्टता में नहीं उसके विस्तार और विविधता में रचना चाहती है | इसमें गूढ़ार्थ नहीं, निहितार्थ महत्त्वपूर्ण हैं | यूं तो यह सहजभाव की कविताएँ हैं, किंतु इन्होंने मुझे भावनाओं-प्रवृत्तियों-मनोवृत्तियों के साथ रूप के बदलते संबंधों पर सोचने-विचारने के लिये प्रेरित किया | उल्लेखनीय है कि एक तरफ तो मौलिक भावनाओं और रूढ़िबद्व रूपों तथा दूसरी तरफ मौलिक रूपों और रूढ़िबद्व भावनाओं के बीच के तनाव को कलात्मक विकास का सबसे मजबूत अभिप्रेरक यूं ही नहीं माना गया है | अभिव्यक्ति की कोई भी पद्वति, एक समय जितनी भी वैयक्तिक और जीवंत रही हो, एक खास समय सीमा के बाद अपना स्वतःस्फूर्त चरित्र बनाए नहीं रख सकती और इसी तरह कोई भी रूप, चाहे जितना दृढ़ हो, रूढ़ि के बतौर पैदा नहीं हुआ होगा |  
भावनाएं भी उतनी ही रूढ़ हो सकती हैं जितने कि चरित्र, स्थितियां या प्लाट | भावनाओं का इतिहास होता है, उनका भी उत्थान-पतन होता है, उनके ऐसे रूप होते हैं जो व्यापक और सर्वमान्य हो सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं | मानव इतिहास के विभिन्न युग इस मामले में बहुत अलग-अलग नहीं होते कि एक युग में अधिक संवेदनशीलता या भावनाओं की अधिक स्वतःस्फूर्तता होती है और दूसरे में कम; बल्कि उन चलनों के मामले में अधिक अलग-अलग होते हैं जिनके अनुसार कुछेक भावनाओं को 'प्रदर्शित करने' अथवा नहीं करने का निर्णय होता है | इस तथ्य से अधिक और किसी चीज से कलात्मक रूपों की रूढ़िबद्वता का अहसास नहीं होता कि अधिकांश रचनाओं में एक तत्त्व का अभाव होता है जिसे सामान्यतः अपरिहार्य माना जाता है और वह है सच्ची, तीव्र और ईमानदार अनुभूतियां | निश्चय ही इस दावे का समर्थन नहीं किया जा सकता कि जो कुछ ईमानदारी से महसूस हो वही कलात्मक तौर पर प्रभावशाली और सौंदर्यात्मक रूप से मूल्यवान होगा | दरअसल, अत्यंत गैर ईमानदार भावनात्मक प्रवृत्तियों से भी मूल्यवान और उत्कृष्ट कृतियां पैदा हो सकती हैं | शायद यह भी माना जा सकता है कि सफल कलात्मक रचनाओं के लिये मजबूत भावनात्मक लगाव की अपेक्षा प्रस्तुति के विषय से एक निश्चित भावनात्मक दूरी की जरूरत होती है | दिदेरो के 'परादोक्स स्युर ल कोमेदिया' में हमें यह पढ़ने / जानने को मिला ही है कि, एक नियम के बतौर, लेखक जो कहना चाहता है उसे जितनी ईमानदारी और तीव्रता से महसूस करेगा, उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही कमजोर होगी | आंसू से गीली आँख साफ-साफ नहीं देख सकती, भावना से कांप रहे मुख पर नियंत्रण कठिन होता है; कुल मिलाकर वास्तविक कलाकार के बजाए किसी शौकिया कलाकार की भावनाएं ज्यादा सच्ची और गहनतर होती हैं | और हालाँकि यह हमेशा सही नहीं होता कि गहनतम भावनाओं से बदतर कविताएँ ही पैदा हों, लेकिन इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि वास्तविक अनुभूतियों से जो कृति जन्म ले वह अवास्तविक भावनाओं से जन्म लेने वाली प्रस्तुति से अधिक रोचक होगी |
ईमानदारी कोई सौंदर्यात्मक गुण नहीं है | वास्तव में वह एक नैतिक गुण है | कहा ही नहीं गया है, देखा / पहचाना भी जा सकता है कि एक अच्छा व्यक्ति खराब लेखक भी हो सकता है | ईमानदारी और कलात्मक क्षमता का स्वाभाविक मेल 'कालोस कागाथोस' पर आधारित एक दार्शनिक स्वप्न है, और सभी सांस्कृतिक मूल्यों में एकता की अधिभूतवादी पूर्वमान्यता के बतौर मान लिया गया है | इस विचार के सामने जो पहली कठिनाई आती है वह यह कि इसके लिये कोई कसौटी नहीं खोजी जा सकती कि साहित्य में, कविता में वास्तविक क्या है - इस अर्थ में कि उसमें काल्पनिक नहीं वास्तविक भावनाओं को अभिव्यक्त किया गया है | स्वयं रचनाओं के भीतर लेखक की ईमानदारी का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं पाया जा सकता | अगर यह मान भी लिया जाये कि साहित्य में, कविता में जो कुछ ईमानदार लगे वह ईमानदार ही है, तो भी समस्या हल नहीं होती; क्योंकि गैर ईमानदारीपूर्वक प्रदर्शित और स्वीकृत, बनावटी और ढोंग भरी प्रवृत्तियों से भी उत्कृष्ट व मूल्यवान रचनाएँ पैदा हो सकती हैं, हुई ही हैं | असल में जो दिक्कत दरपेश है वह ईमानदारी - गैरईमानदारी के तमाम सवालों से अलग है | क्योंकि ईमानदार हों अथवा न हों, भावनाएं कलात्मक उत्कर्ष के लिहाज से प्रासंगिक ही नहीं होतीं : दरअसल, मानव आत्मा के अन्य तमाम पहलुओं और अभिव्यक्तियों के मुकाबले इनमें कोई खास कलात्मक विशिष्टता नहीं होती |
एक व्यक्ति जो कुछ महसूस करता है अथवा नहीं करता है, वह कलाकार के बतौर नहीं व्यक्ति के बतौर क्रिया है | कलाकार की भावनाएं उसी तरह कच्ची सामग्री हैं, जिस तरह वे चरित्र जिनका वह पर्यवेक्षण करता है, अथवा वह समाज जिसका वह अध्ययन करता है | किसी खास भावना को प्रस्तुत करने के लिये उसे महसूस करना जरूरी नहीं, वैसे ही जैसे किसी हत्यारे का चित्रण करने के लिये हत्यारा - या 'उदात्तीकृत हत्यारा' भी - होना जरूरी नहीं | उसे केवल इन भावनाओं की छवि अपने भीतर पैदा करनी होती है; और हो सकता है कि स्वयं भावनाओं की अनुपस्थिति इसकी वास्तविक पूर्वशर्त हो | कुछ भी हो, कल्पित भावनाओं की साहित्य में, कविता में अत्यंत मौलिक और रुचिकर अभिव्यक्ति हो सकती है; जबकि ईमानदार भावनाओं को अकसर निर्वैयक्तिक और उदासीन रूपों का पर्दा ओढ़ना पड़ता है | संक्षेप में कह सकते हैं कि कभी भावनाएं रूढ़िबद्व होती हैं, तो कभी रूप रूढ़िबद्व होते हैं |
प्रदीप जिलवाने की 'नींद' शीर्षक कविताओं ने इस विषय पर सोचने-विचारने के लिये प्रेरित किया, इसके लिये उनका आभार |  

1 comment:

  1. प्रदीप इन दिनों लगातार अच्‍छा लिख रहा है. कविताओं के बहाने आदर्श मूल्‍यों और कवि-कविता के अंतर्सम्‍बन्‍धों पर गंभीरता से लिखा है. बधाई.

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