Friday, November 23, 2012

स्वाति पांडेय नलावडे की कविता में ऐसा आत्मीय संवाद है जो कभी भी समाप्त नहीं होता है

स्वाति पांडेय नलावडे के पहले कविता संग्रह 'रेवा पार से' का लोकार्पण दो दिन बाद इंदौर में हो रहा है । इस कार्यक्रम का निमंत्रण देते हुए स्वाति जी ने बताया कि इस कार्यक्रम को लेकर उनके परिवार में और उनके परिचितों में खासा उत्साह है और इस कारण से यह लोकार्पण कार्यक्रम उनके, उनके परिवार के सदस्यों के और उनके परिचितों के बीच एक उत्सव की तरह देखा/मनाया जा रहा है । अपनी कविताओं, अपने पहले कविता संग्रह और उसके लोकार्पण को लेकर खुद स्वाति जी का उत्साह भी एक विलक्षण अनुभव की तरह मैंने देखा/पाया है । उनकी कविताओं के एक सामान्य पाठक के रूप में मैंने पाया है कि जीवन में कविता को इतनी महत्ता देने के कारण ही स्वाति जी की कविता में सांसारिक चीजों और व्यक्तिगत कार्रवाईयों के रोजमर्रा संसार का गहरा प्रभाव है। ऐसी ऐन्द्रियता उनकी कविताओं की लगभग चारित्रिक विशेषता ही है । अपने आसपास के प्रति संवेदनशीलता और जो दीखता या महसूस होता है उसे भाषा में सहेज और दिखा पाना कठिन काम है, हालांकि यह कविता का एक बुनियादी काम है - जिसे स्वाति जी ने विविधता के साथ साधा है । ऐसी कविताओं की इन दिनों भरमार है जो बिम्बों और रूपकों के ढेर के बावजूद हमें कुछ साफ-साफ दिखा नहीं पातीं । ऐसे में स्वाति जी की कविताएं पढ़ना कई मायनों में दृष्टिवती रचनाएं पढ़ना है । भाषा उनके यहां ‘बोलती’ उतना नहीं है जितना ‘देखती’ है और उसके काव्य-प्रभाव में हम भी अपनी देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय कर पाते हैं ।
स्वाति जी समय को पढ़ने की कोशिश करते हुए एक कवि के रूप में उसके स्थूल ब्यौरों में नहीं उलझतीं । वह उसे संक्षिप्त या बहुधा सांकेतिक विवरणों में पकड़ती हैं । उनकी कविताओं में प्रकट और तात्कालिक विवरण प्रायः कम ही मिलेंगे; और समय की अंदरूनी हलचलों को लेकर उनके प्रभावपरक मनोबिम्ब प्रत्यक्ष दिखते हैं । अबोध की संवेदना और अनुभूति से सृजित स्वाति जी की कविताओं में परिपक्व मन की सतर्क भाषा के विपरीत जितनी अनगढ़ता और भोलापन है, उससे कहीं ज्यादा विस्तार और गहराई है । कविताओं के इस विस्तार और गहराई में अबोधपन के अनुरूप अर्थ जितना प्रकट होता है उतना ही अप्रकट रह जाता है । लेकिन किसी भी हालत में स्वाति जी की कविता के अर्थ में प्रकट, अप्रकट रूप किसी भी तरह के रहस्य का जाल नहीं बुनती हैं । आज की कविताओं में बहुतेरी ऐसी हैं जो मनुष्य के और उसके मानवीय संबंधों के संसार तक ही सीमित हैं; लेकिन स्वाति जी की कविता हमारे संसार को अर्थपूर्ण विस्तार देती है और यह प्रीतिकर अहसास कराती है कि हमारे संसार में सिर्फ दूसरे लोग और संबंध भर नहीं हैं बल्कि अन्य चीजें भी हैं; और उनके साथ हमारे रिश्ते हमारी बुनियादी अस्मिता का एक अनिवार्य अंग हैं । एक सच्चे कवि की तरह स्वाति जी की कविताओं में जो धड़कता संसार है वह किसी तरह का अस्तिमूलक आतंक नहीं पैदा करता; बल्कि वह मनुष्य की रोजमर्रा की जिंदगी और उसके गहनतम अनुभवों में शरीक संसार है और कई बार चीजों के साथ रिश्ता उतना ही सहज और आत्मीय है जितना दूसरे लोगों के साथ संभव है; चीजों से अलगाव, उनका बेगानापन और उनका आतंक जब लगभग नई रूढि़यां बन चुके हैं - चीजों के साथ सहज आत्मीयता की संभावना की पहचान जीवित रखकर स्वाति जी की कविता न केवल कविता में एक भिन्न किस्म का स्वाद पैदा करती है बल्कि किन्हीं अर्थों में एक ऐसे महत्वपूर्ण तत्व को हमारी कला में सारी आधुनिकता के बावजूद बरकरार रखती है जो हमारी पारंपरिक कलादृष्टि का मूल्यवान तत्व रहा है और जो हमारा रचनात्मक उत्तराधिकारी है ।
स्वाति पांडेय नलावडे की समाज-व्यवहार-परक कविताओं में जीवन में उपस्थित वस्तुओं, दृश्यों और स्थितियों से ऐसी काव्यात्मक निर्मितियां की गयीं हैं कि उन्होंने असाधारण अर्थ-विस्तार पा लिया है । उनमें न केवल सतह की सच्चाई बल्कि उसकी हर भीतरी पर्त उधड़ कर हमारे सामने आ गई है । स्वाति जी की कविताओं में मनुष्य और मनुष्य के बीच सहभोक्ता का एक अंतरंग रिश्ता कायम करने के साथ आपसी समझ का सहकार-भाव पैदा किया जा सका है । आस्था से भरा यह सहकार-भाव टूटता नहीं है और न पराजित होता है; बल्कि हर विपरीत परिस्थिति, हर द्धन्द्ध से निबटने की गहरी इच्छा जगाता है । स्वाति जी ने अपनी कविताओं में वैचारिकता को निरंतर सक्रिय रखा है; और इस तरह उनकी कविताओं में विचार और संवेदना का पारंपरिक द्धैत व्यर्थ हो जाता है । उनके कुछ आग्रह और सरोकार हैं जो उनकी कविता में साफ-साफ झलकते हैं और जिनकी किसी न किसी तरह की परंपरा उनके संपूर्ण कृतित्व में खोजी भी जा सकती है । लेकिन बुनियादी तौर पर उनकी कविता का आकर्षण इस विचार-समुच्चय या उसकी परंपरा में नहीं है । उनकी कविता के पास हम उसकी तीखी-चमकती समझ के लिए जाते हैं जो निरे विचार से संभव नहीं है और जिसके लिए एक ऐसी संवेदना की जरूरत है जो जीने की तकलीफों से जूझती-उलझती है, और उनसे पल्ला नहीं छुड़ाती बल्कि उन तकलीफों से घिरे रहकर एक तरह का ‘यातनापूर्ण विवेक’ विकसित करती हुई जीने की इच्छा को अटूट रखती है । जिंदगी में हिस्सेदार कविता और कलात्मक दृष्टि से संपन्न कविता दो अलग चीजें हैं, ऐसा हम मानते और दुर्भाग्य से पाते भी रहे हैं । लेकिन स्वाति जी की कविताओं में गहरा सौंदर्यबोध है, सुख और जोखिमभरी संवेदना, भाषा पर असाधारण नियंत्रण और जीने की साधारण हरकतों की अचूक पकड़ है ।
इसी कारण से, स्वाति पांडेय नलावडे की कविताओं से गुजरते हुए हम पाते हैं कि जो कविता जिंदगी की तकलीफ, साहस, संघर्ष, हर्ष और विषाद को सहेज पाती है, वही शिल्प-सौंदर्य भी अर्जित कर पाती है । भाषा के अर्थगर्भी होने की जो धारणा हमारे यहां आमतौर पर प्रचलित रही है उसमें एक से अधिक अर्थ होने को आवश्यक और वांछनीय माना गया है । अनुभव और जिंदगी की जटिलताओं को अगर कविता में चरितार्थ करना है तो जाहिर है कि एकार्थी भाषा से ऐसा करना संभव नहीं है, इसलिए ‘एंबिगुइटी’ को काव्यगुण माना गया । लेकिन स्वाति जी की  कविता भाषा की इस ‘एंबिगुइटी’ का निषेध करती दिखती है । भाषा स्वाति जी की कविताओं में सिर्फ एक माध्यम भर ही नहीं है, बल्कि उससे आगे जाकर अनुभव का हिस्सा होने की जीवंत कोशिश भी है । कवि के रूप में उन्हें जिस तरह से अपनी संवेदना और अपने विवेक पर भरोसा है कुछ उसी तरह से उन्हें भाषा पर भी है । यह भी कहा जा सकता है कि भाषा पर यह भरोसा ही उन्हें अधिक से अधिक सूक्ष्म और स्पष्ट उपयोग के लिए प्रेरित करता है । यह शिल्पवादी होना नहीं है, हालांकि ऐसा नतीजा निकालने का आसान प्रलोभन - इस बारे में जो भ्रम हमारे यहां माहौल में हैं उनके रहते - सहज ही होगा। यह कवि होना है और सारी अमानवीयता के विरूद्ध मानवीय बने रहने की कोशिश करना है : यहां कविता ही बुनियादी और घनीभूत मानवीयता को बचाये रखने का काम करती है । बिना विशेषणों या बिंबों की सहायता से अनुभव के ऐंद्रिक ग्रहण को भाषा में चरितार्थ कर पाना सीधे-सीधे बयान या बखान द्धारा कठिन काम है । स्वाति जी की कविता इस कठिनता को न सिर्फ प्रभावपूर्ण तरीके से साधती है, बल्कि मौजूदा समय में कविता की संभावना को आगे बढ़ाने का काम भी करती है । ऐसा लगता है कि जैसे स्वाति पांडेय नलावडे के लिए कविता ऐसा आत्मीय संवाद है जो कभी भी समाप्त नहीं होता है । शब्द-बहुलता अतिरेक और दुरूहताओं का अतिक्रमण कर वह एक ऐसा शिल्प और मुहावरा अर्जित करती हैं जो मौजूदा समय और उसमें सुख-दुख झेल रहे मनुष्य के बारे में अत्यंत सघन और मार्मिक बखान करने में समर्थ है ।

Wednesday, April 4, 2012

कविता को लेकर व्यक्त की गईं अज्ञेय की चिंताएँ आज समकालीन कविता को एक ऊँचाई प्रदान करती हैं

पच्चीस वर्ष पहले आज ही के दिन बीसवीं सदी के महानतम सर्जक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने अपने प्राण छोड़े थे | जिस तरह से हर बड़ा लेखक अपने देहावसान के बाद अपनी रचनाओं में जीवित रहता है, वैसे ही अज्ञेय भी हमारे बीच मौजूद रहे - हमारी परिचित और अभ्यस्त दुनिया को और ज्यादा सत्यापित, सघन, उत्कट और समृद्ध करते हुए | अज्ञेय सामाजिक होने की जगह अपने स्वयंरचित संसार में भले खड़े दिखाई देते हों, लेकिन तब भी वह उस सभ्यता से ही लड़ रहे थे जो व्यक्ति से उसकी सृजनात्मक कल्पना, मानवीय संवेदना और सौंदर्यबोध छीन रही थी | मलयज ने अपनी किताब में रेखांकित किया है कि 'साहित्य-क्षेत्र में कला-मूल्यों की लड़ाई अज्ञेय लगभग अकेले लड़ रहे थे |' अज्ञेय लेकिन सिर्फ कला-मूल्यों की लड़ाई ही नहीं लड़ रहे थे, बल्कि उसकी सार्थकता को बचाए और बनाए रखने के लिए परिवर्तित जीवन-यथार्थ को अपनी रचना-सामग्री बनाने के संघर्ष में विधिवत जुटे थे | अज्ञेय ने आधुनिक मनुष्य के आंतरिक और बाह्य यथार्थ की टकराहटों को ही नहीं, बल्कि उस आंतरिक व बाह्य यथार्थ की विभिन्न परतों और उसके द्धैध को भी चिन्हित किया - और सिर्फ चिन्हित ही नहीं किया उसे अपने युग का स्वर भी बना दिया | यह स्वर नितांत लौकिक और हमारे होने - न होने से जुड़ा था | इसमें न विराट नाटकीयता थी और न महत में विलीन हो जाने की आतुरता | आधुनिक जटिल संवेदनाओं को व्यक्त करना जटिल, प्रतीकात्मक और रहस्यवादी भाषा में चूँकि संभव नहीं था, इसलिए अज्ञेय ने कविता में भाषा को और अधिक सपाट व पठनीय बनाने की वकालत की | 'सर्जना के क्षण' में उन्होंने लिखा है : 'जो बाहर है, सतह पर है उसे बखानने के लिए एक नयी और सपाट भाषा की आवश्यकता थी - साधारण बोलचाल की ओर हम पहले ही बढ़ चुके थे और अब हमें भाषा का वह अभिधामूलक इकहरापन भी वांछनीय जान पड़ने लगा जो सामाजिक व्यवहार में इसलिए श्लाघ्य होता है कि कही हुई बात का अर्थ समझने में भूल न हो |' कविता को लेकर अज्ञेय की यही सब चिंताएँ आज समकालीन कविता को एक ऊँचाई प्रदान करती हैं | अज्ञेय का पूरा काव्य-मानस जिस तरह से 'परम्परा' के भीतर से बनता है, उसमें उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को 'मुक्त' करने की कोशिश की है और कोई भी अच्छा साहित्य यही करता है | उन्होंने अपनी खोजी दृष्टि से, अपनी आधुनिक व विद्रोही चेतना से समाज पर व्यापक प्रभाव छोड़ा है | जड़ता से मुक्ति दिलाने की इच्छा उनके समूचे लेखन में मौजूद रही है | भारतीय चिंतन में इसी को 'अपूर्वता' कहा गया है और इस अर्थ में अज्ञेय इसी 'अपूर्वता' के कवि ठहरते हैं |